अमित कुमार ’ अकेला’
नौकरी के पूरे पैंतीस वर्ष जीवन से कैसे बह गये। पता ही नहीं चला और आज विद्यासागर बाबू रिटायरमेंट की दहलीज पर पहुँच गये। छोटी-सी प्राइवेट नौकरी के साथ दोनों बच्चों की परवरिश और उनकी पढ़ाई - लिखाई में उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी तभी तो आज दोनों बच्चे अच्छी सरकारी नौकरी में थे। विवाह के बाद इकलौती पुत्री अपने ससुराल चली गयी और पुत्र भी अपने परिवार और बच्चों के साथ मजे से अपनी नौकरी कर रहा है। ये सब देखकर उन्हें बहुत सुकून होता था।
जीवन के कठिन संघर्ष में अर्धांगिनी सुजाता ने उनका भरपूर साथ दिया। वैसे तो सुख के नाम पर उन्होंने सुजाता को कभी ज्यादा कुछ नहीं दिया फिर भी तमाम अभावों और कठिनाइयों के बावजूद सुजाता ने कभी कोई शिकायत नहीं की। यहाँ तक की वे उसे कभी अपना घर भी नहीं दे सके और अब तक किराये के घर में ही रहने को अभिशप्त थे। उनकी भी अपनी मज़बूरी थी। आखिर इतनी छोटी सी आमदनी में बेचारे करते भी क्या ...? यही बात विद्या बाबू को अक्सर कचोटती रहती थी।
पर आज उनके मन में एक गहरा संतोष इस बात को लेकर था की उनके पुत्र ने अपना घर बना लिया था और अवकाश प्राप्ति के बाद वे दोनों भी उन्हीं के पास जाकर रहने वाले थे। आखिर रोहन उनका इकलौता पुत्र जो ठहरा । वे दोनों इस बात को लेकर कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे कि अपने घर में अब वे पूरी आजादी के साथ रह सकेंगे।
पत्नी सुजाता को साथ लेकर नियत समय पर वे ट्रेन से उतर चुके थे। पुत्र भी पहले से स्टेशन पर मौजूद था और वे दोनों उसके साथ उसकी अपनी गाड़ी से घर आ गये। उनका सामान एक कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। अपने साथ वे काफी कुछ अपनी जरुरत का सामान भी ले आये थे जिनकी यहाँ उतनी उपयोगिता नहीं थी जितनी वे करते आये थे। पत्नी सुजाता तो पोते - पोतियों में व्यस्त हो गयी और अपना पूरा वात्सल्य उन पर उड़ेल रही थी . जो शायद काफी दिनों से उन्होंने संभाल रखा था। पुत्रवधू ने पूरे घर को बड़े करीने से सजा रखा था मानो एक - एक सामान के लिये पहले से जगह तय कर रखा हो। वैसे भी आजकल बड़े - बड़े शहरों में अधिकांश घर आपको ऐसे ही सुसज्जित मिलेंगे जिसमें कुछ और की गुंजाईश कम ही रहती है। कुछ ऐसा ही विद्या बाबु इस घर में स्वंय के लिये महसूस कर रहे थे। अपने साथ लाये अपनी जरुरत के सामानों के लिये उन्हें इस घर में कोई स्कोप नहीं दिख रहा था।
पत्नी सुजाता को साथ लेकर नियत समय पर वे ट्रेन से उतर चुके थे। पुत्र भी पहले से स्टेशन पर मौजूद था और वे दोनों उसके साथ उसकी अपनी गाड़ी से घर आ गये। उनका सामान एक कमरे में शिफ्ट कर दिया गया। अपने साथ वे काफी कुछ अपनी जरुरत का सामान भी ले आये थे जिनकी यहाँ उतनी उपयोगिता नहीं थी जितनी वे करते आये थे। पत्नी सुजाता तो पोते - पोतियों में व्यस्त हो गयी और अपना पूरा वात्सल्य उन पर उड़ेल रही थी . जो शायद काफी दिनों से उन्होंने संभाल रखा था। पुत्रवधू ने पूरे घर को बड़े करीने से सजा रखा था मानो एक - एक सामान के लिये पहले से जगह तय कर रखा हो। वैसे भी आजकल बड़े - बड़े शहरों में अधिकांश घर आपको ऐसे ही सुसज्जित मिलेंगे जिसमें कुछ और की गुंजाईश कम ही रहती है। कुछ ऐसा ही विद्या बाबु इस घर में स्वंय के लिये महसूस कर रहे थे। अपने साथ लाये अपनी जरुरत के सामानों के लिये उन्हें इस घर में कोई स्कोप नहीं दिख रहा था।
विद्या बाबु को अपनी आजादी कुछ सिमटती सी प्रतीत हो रही थी और एक बार फिर से उन्हें ऐसा लग रहा था जैसे अपने ही घर में वे किरायेदार बनकर रह गये हैं।
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