- कार्तिकेय शुक्ला
मैं तो कुछ कहता नहीं
फिर भी मेरी आँखें हैं कहती,
जो कभी मैं देखता नहीं
वे सारी राज़ हैं ये खोलती
और कि विश्वास मेरा
कहता है चीत्कार कर,
हो रही है प्रलय की बेला
बात ये स्वीकार कर
कि इससे रक्षा करने
रूप नया धर आओ तुम,
विश्वात्मा हो कहाँ तुम
आओ कि पुनः आओ तुम
रुत ये बदल न जाए
बदल न जाएँ सरगर्मियां,
मिट न जाएँ हाथों की रेखाएं
मिट न जाएँ कहानियां
और कि इन्हें देने सहारा
मझधार से कोई किनारा
रोज़ टूटती खिड़कियों को
स्वरूप नव दे जाओ तुम।
विश्वात्मा हो कहाँ तुम
आओ कि पुनः आओ तुम!
घिर रही काली घटाएँ
अंधियारा छाने लगा है,
अपने हिस्से का भी सुख
दूर बहुत जाने लगा है।
रोक कर अवलम्ब बन
स्वर्ण फूल खिलाओ तुम,
कालिमा इस रात में
मार्ग ज़रा दिखलाओ तुम।
विश्वात्मा हो कहाँ तुम।
आओ कि पुनः आओ तुम!
मैं तो कुछ कहता नहीं
फिर भी मेरी आँखें हैं कहती,
जो कभी मैं देखता नहीं
वे सारी राज़ हैं ये खोलती
और कि विश्वास मेरा
कहता है चीत्कार कर,
हो रही है प्रलय की बेला
बात ये स्वीकार कर
कि इससे रक्षा करने
रूप नया धर आओ तुम,
विश्वात्मा हो कहाँ तुम
आओ कि पुनः आओ तुम
रुत ये बदल न जाए
बदल न जाएँ सरगर्मियां,
मिट न जाएँ हाथों की रेखाएं
मिट न जाएँ कहानियां
और कि इन्हें देने सहारा
मझधार से कोई किनारा
रोज़ टूटती खिड़कियों को
स्वरूप नव दे जाओ तुम।
विश्वात्मा हो कहाँ तुम
आओ कि पुनः आओ तुम!
घिर रही काली घटाएँ
अंधियारा छाने लगा है,
अपने हिस्से का भी सुख
दूर बहुत जाने लगा है।
रोक कर अवलम्ब बन
स्वर्ण फूल खिलाओ तुम,
कालिमा इस रात में
मार्ग ज़रा दिखलाओ तुम।
विश्वात्मा हो कहाँ तुम।
आओ कि पुनः आओ तुम!
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 29 नवंबर 2021
विश्वात्मा कहाँ हो तुम
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