राघवेन्द्र नारायण
मजबूरियाँ थीं अन्यथा वह क्यों कभी झुकता
मंजिल तो थी नजदीक, वह पीछे नहीं मुड़ता।
क्यों माँगता क्षमा सबसे, बिना किये गुनाह,
जीती हुई बाजी को छोड़, क्यों कभी उठता।
उसका इरादा नेक था,वह सत्य का राही,
अपने ही कथन को क्यों वह,करता उल्टा-पल्टा।
जब थी नहीं आशा तब क्यों,की घोषणा उसने,
जो कर्ज उसपर था नहीं,उसे क्यों करता चुकता।
ना जाने वह क्यों हो गया,सहसा था अन्यमनस्क,
वरना वह कारवाँ उसका,नहीं राह में लुटता।
कब आदमी की अक्ल में, आ जाये कोई बात,
किसी भी ज्योतिषी का पन्ना,क्यों नहीं खुलता।
उसकी तरफ से है नहीं,कोई भी पश्चाताप,
वह आज भी खुश होकर के,आकाश में उड़ता।
कुछ लोगों की थी चाल यह,वरना कभी उसका,
ध्वज सत्य का सरेआम,अलसुबह नहीं झुकता।
सब लोग जानते हैं वह बेहद है ईमानदार,
आक्षेपों से दम उसका,कभी भी नहीं घुटता।
जो सच्चरित्र है, निगाहें उनपर लगीं सबकी,
मलिन है वेश सत्य का,धवल झूठ का कुरता।
लेकिन यह बात, काबिलेगौर है सचमुच,
कुछ दूर ही चलकर असत्य,जमीन पर लुढ़का।
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 29 नवंबर 2021
मजबूरियाँ थीं अन्यथा वह
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