रंजना सिंह चाहर
समुंदर की सी गहराई,तो परवाह ना जमाने की।
तपन हो उस दिवाकर की,तो परवाह ना खजाने की।
चाँद की हो तो शीतलता,तो मन आनंद पाता है।
कमल कीचड़ में जन्मा है,सुगन्ध फिर भी देता है।
महकता है मही पर जो,जो खुद से ही, महकता है।
जो खुद से ही महकता है, खुशी औरो को देता है।
जो खुद ही है अमावस्या,वह पूनम कर नहीं सकता।
उजाला कैसे आयेगा,जो तम को हर नहीं सकता।
मेवाड़
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