प्रदीप कश्यप
जमाने के सारे दुखों से भरा हूँ।
भले चाहे तुम को सुखी दिख रहा हूँ।
नहीं मैंने आँखों से आँसू बहाए।
गुलों की तरह दर्द सह कर खिला हूँ।
मुझे चाहता है जो जड़ से मिटाना।
मैं दुश्मन उसे भी नहीं मानता हूँ।
खुशी जो हुआ मुझ को बर्बाद कर कै।
भला उस का कैसे करूँ सोचता हूँ।
गई रूठ कर के खुशी सारी तबसे।
तुम्हें छोड़ कर के मैं जब से गया हूँ।
मुझे झूठ से तुम डराओगे कैसे।
सही बात होकर निडर बोलता हूँ।
मिला ही नहीं हम सफर कोई कश्यप।
अकेला ही हिम्मत जुटा कर चला हूँ।
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