मालिनी गौतम
भरे - पूरे रास्तों से गुज़रती ज़िंदगी
अचानक आ कर खड़ी हो जाती है
एक ऐसे मोड़ पर
जहाँ होता है सिर्फ अकेलापन
एक खोखला सा खालीपन ...
नहीं होता किसी अपने के
होने का अहसास
नहीं गूँजते जहाँ हवाओं में
इबादत के स्वर
इस अकेलेपन में
नज़र के सामने
एक रहस्यमयी मुस्कान के साथ
सूखे पत्ते से थिरकते हैं
जिंदगी के कितने ही दृश्य
सब कुछ होता है कितना उजाड़ ...
एकाकीपन की यह,
रहस्यमयी चुप्पी
खालीपन से भरे
अँधेरे गहरे कुँए से टकराकर
परिवर्तित हो जाती है कोलाहल में
कोलाहल ...
खालीपन के अभेद्य आवरण में
लिपटा कोलाहल ...
जिस्म में सुलगती है
एक मद्धिम सी आग
जो लौ बनकर बदल जाती है
तेज भड़कीले शोलों में ...
अग्नि और आत्मा के बीच
स्थापित होता है,एक तादात्म्य
सवालों और जवाबों के
इस सिलसिले में
कितनी ही चिंगारियाँ
बना देती हैं काले सुराख जिस्म पर
आग की लपटों में जलता है
पूरा के पूरा वजूद
कतरा - कतरा होकर ...
राख होने के बाद भी
सुनायी देती हैं कुछ
मद्धम कराहती सी आवाज़े
इस आग में नहाकर आलोकित होता है
नन्हा सा दीप
जो टिमटिमाता है
मन की किसी खिड़की में
बन जाता है
आँखों का सूरज
जिसकी रौशनी में
सारी सीमाओं को लाँघकर
नज़रें फिर से छूने लगती हैं
हरे -भरे चिनारों को
दूरियों के बदल जाते हैं मायने
चिनारों का स्पर्श पाकर लौटीं नज़रें
अपने साथ लेकर आती हैं
ठंडी शीतल बयारें
जिनके स्पर्श से
ज़िदगी एक बार फिर
हो उठती है स्पंदित ...।
इस अंक के रचनाकार
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मंगलवार, 30 नवंबर 2021
कोलाहल
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