टीका देशमुख
अर्थ खो गए कहीं शब्दों की भीड़ में
जुगनू से आग लग गई सूरज के नीड़ में
सत्ता की देहरी यों उगीं हठधर्मी की ठोकरें
अश्व स्वेद संग मिले धरती की सीड में
देवदारु की चोटियां बतियातीं आकाश से
हरितकरैत - विषगंध आन बसी है चीड़ में
रीत चुके बादलों-सा अपनों का अपनापन
तनिक भेद रहा नहीं हास में और पीड़ में
समय के भाल खिल रही प्रसव की वेदना
सत्य सुभाषित होगा पुनः आर्य द्रविड में
हरि हृदय आन बसे मैं गया कहां
आसनिरास एक हुईं जगतीक्रीड में
जात गोत मत पूछो न ही मेरा नाम
लेखकीयधर्म ओढ़ लिया मैंने तनपीढ़ में
यमुनानगर (हरियाणा)
94660 - 17312
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