डॉ. मंजू वर्मा
शाम - ए - ज़िंदगी हर शाम
तेरे लौट आने की ,चिर - प्रतीक्षित आस
अब टूटने लगी है
कि शाम - ए - ज़िंदगी यूं ढलने लगी है!
शरद की लम्बी रातें
और तन्हाइयों की बारातें सुनसान राहें
और ख़ामोश फिज़ाएं ,है खौफ का मंज़र
दिल में मायूसी अब पलने लगी है
कि शाम - ए -ज़िंदगी यूं ढलने लगी है!
पतझड़ की नीरस आभा
दरख्तों की ठूंठ डालियां,वजूद से होकर जुदा
धरा पर लोटते पीले - रुग्ण
सूखे पत्तों की सरसराहट
जीने की चाहत भी अब मिटने लगी है
कि शाम - ए - ज़िंदगी यूं ढलने लगी है!!
भूतपूर्व प्रोफेसर
यू.एस.ओ.एल. पंजाब विश्विद्यालय,चंडीगढ़
इस अंक के रचनाकार
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मंगलवार, 30 नवंबर 2021
जिंदगी यूं ढलने लगी
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