फतेलाल चंदेल
धूप के स्वागत में
पहट जगे आदमी के आंगन
धूप नहीं उतरती
अटक जाती है अट्टालिकाओं में
जहां सुबह
ग्यारह की सुई पर निकलती है।
झाड़ बुहार करती बाई
कचरे की तरह गिरा जाती है धूप मेरे आंगन
तब तक मैं थककर निढाल
सुस्ता रहा होता हूं।
दोपहरी आंगन में चुपचाप पड़ी धूप
सांझ के लिए सिमटकर चली जाती है।
न महल में पसर पाती है
न आंगन में बिखर पाती है
न जाने कैसे जमा - खर्च में
दफ्तर के संवर जाती है।
अगले बरस लोकतंत्र को जीताने
आसमान में छा जाती है।
घुमका
जिला - राजनांदगांव (छ.ग.)
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