बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर
हरदीप सिंह रिश्तेदारी से मेरे अंकल लगते थे । वह उच्च सरकारी पद पर थे। सख़्त तबीयत, रिश्वतख़ोर,मुँहफट तथा पढ़ाई-लिखाई तथा कानून-कायदे में पूरी तरह परिपक्क । शतिर ! होशियार ! अंग्रेजी, ऊर्दू, हिन्दी, पंजाबी भाषाओं में माहिर (निपुण)। कानून सम्बंधी एक लघु पुस्तक भी उन्होंने लिखी थी।
अपनी नौकरी के दौरान वह कई बार सस्पैंड भी हुए। कई बार जेल गए । परन्तु प्रत्येक बार बरी भी हो जाते। न्यायाधीश के आगे निर्भीक फरांटेदार अंग्रेजी बोलने में माहिर । चालाकी - चुस्ती, ठग्गी - ठोरी करने के सारे दाव - पेच उनको आते थे । कानूनन ग़लती करके फिर कानूनन तौर पर कैसे बचाव करना है ? उनको अच्छी तरह से ज्ञात था। उनसे कई उच्च तथा निम्न मुलाज़िम भी डरते थे। यहाँ तक कि कई वकील भी उनसे भय खाते थे। उन्होंने अपने गांव में कई एकड़ भूमि दो नम्बर में बनाई थी । मोहल्ले में, गांव में, शहर में, रिश्तेदारी में, उन्होंने काफी दुश्मनी पाल रखी थी । परन्तु वहाँ साथ - साथ पक्के दोस्त भी बहुत बनाए हुए थे। दोस्तों की दुख तकलीफ में पहुँच कर मदद करते थे। इतने ज्यादा चुस्त थे कि अपनी सेवा - निवृत्ति की सही तिथि के लिए वह अपनी जन्म तिथि सही करवाने के लिए पाकिस्तान चले गए तथा वहाँ से स्कूल का रिकार्ड लेकर कोर्ट में पेश करके अपनी जन्म तिथि सही ( दुरुस्त ) करवा के लगभग दो वर्ष उम्र घटाकर दो वर्ष अध्कि समय नौकरी की । वह अत्यंत भावुक तथा जज़्बाती व्यक्ति थे।
सेवा-निवृति के एक वर्ष पहले उनको कैंसर हो गया तथा वह लगभग तीन वर्ष तक इस बीमारी से पीड़ित रहे । ज्यादा तकलीफ होने के कारण उनको शहर के एक बड़े अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया । रिश्तेदारी में उनसे मेरी बहुत बनती थी । मैं उनको बचपन से जानता था तथा मैं उनके बच्चों की उम्र का ही था । उनके परिवार से मेरा पुराना परिचय था ।
मैं अस्पताल में उनका हालचाल पूछने गया तो वह एक बैडॅ पर आँखें मूंद कर पड़े हुए थे, परन्तु कुछ होश में थे। मैंने उनके नज़दीक जाकर कहा - अंकल जी, सत् श्री अकाल! आपका क्या हाल है?
उन्होंने मुझे धीमी आवाज़ में जवाब दिया - बस इसी तरह ही है !
इतने समय में एक लेडी डाक्टर उनको देखने के लिए आई तो उसने मुझे कहा - मरीज़ के शरीर की सफाई कर दो ।
मैं अकेला ही उनके पास खड़ा था । मैंने एक कपड़ा लेकर उनके मुँह की लारें साफ की, मुँह साफ किया। हाथ - पैर साफ किए । उनके अंग साफ किए। उनसे बहुत बदबू आ रही थी।
लेडी डाक्टर ने मुझसे कहा - आपका इनके साथ क्या रिश्ता है ? इनको साफ करने के लिए तो इनके परिवार के लोग भी कम ही आते हैं, सफाई वाले सेवादार से ही साफ करवाते हैं क्योंकि इनसे बदबू बहुत आती है, सहन करने के काबिल नहीं होती। आपका इन से क्या रिश्ता ? आप ने तो बड़े अच्छे सलीके के साथ, इत्मीनान के साथ इनके शरीर की सफाई की है ।
मैंने लेडी डाक्टर से कहा - डाक्टर साहिबा! एक मिटटी का मिट्टेी से क्या रिश्ता होता है ? यह तो मिट्टेी पड़ी है, जिस से केवल दवाईयों की बदबू आ रही है, जिस्म की बदबू नहीं आ रही । ख़ैर ! वह दवाई देकर चली गई ।
अंकल जी का जिस्म भूतनुमां बन चुका था। सूखी तोरी ( लौकी ) जैसा जिस्म । आँखें अन्दर को धंसी हुई । मुँह का फैलाव कानों तक चला गया । जबाड़े बीच में ध्ँस गए । सिर के बाल झड़ गए । केवल दिमाग़ की खोपड़ी ही नज़र आ रही थी। हाथ - पैर सुकड़े और मुड़े हुए । जिस्म एकदम काला स्याह, जैसे कोई डरावना भूत हो। उनको पता था कि वह चंद दिनों के महमान हैं। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था।
उनके सिरहाने के समीप, मैं उनके चेहरे के बिल्कुल सामने खड़ा था । मैंने बहुत धैर्य से कहा - अंकल जी, ज़िंदगी अब कैसी महसूस होती है ?
उन्होंने धीमी सी आवाज़ में कहा - यार, मैं बहुत जज़्बाती तथा भावुक आदमी रहा हूँ । लोगों के पीछे लग जाता था । और दूसरों का नुक्सान कर देता था । दिल करता है उठकर उन सब से मुआफी मांगकर आऊँ, जिनके साथ मैंने ज़्यादतियाँ की हैं। जीवन की सारी लीला दिमाग़ में चल-चित्रा की भाँति घूम रही है। बचपन से लेकर अब तक सब कुछ याद आ रहा है। अच्छा बुरा सब कुछ याद आ रहा है। लोगों से ज्यादातिएं बहुत की हैं मैंने । तथा वह धीमी आवाज़ में रूआंसे हो उठे।
लम्बे लम्बे आंसू उनकी आँखों के छोरों से निकल कर मुँह को आ रहे थे। एक जीवन का आख़िरी, अंतिम समय । पश्चाताप में नीरसता की दुखद घड़ी ।
वह रूआंसी मुद्रा में संभल नहीं रहे थे । मैंने उत्सुकता से कहा - अंकल जी, आप अब वापिस नहीं जा सकते। आप अब आगे की ही यात्रा करेंगे। आप मुझे यह बताएँ कि हमको कैसे जीना चाहिए ? एक आदमी को कैसे जीना चाहिए ? ज़िंदगी क्या है ?
उन्होंने ईशारे से मेरे से काग़ज़ तथा पैन मांगा । मैंने काग़ज़ का एक टुक्ड़ा तथा पैन उनको दे दिया, उन्होंने उस काग़ज़ ऊपर केवल एक शब्द लिख दिया फलव!
अपनी नौकरी के दौरान वह कई बार सस्पैंड भी हुए। कई बार जेल गए । परन्तु प्रत्येक बार बरी भी हो जाते। न्यायाधीश के आगे निर्भीक फरांटेदार अंग्रेजी बोलने में माहिर । चालाकी - चुस्ती, ठग्गी - ठोरी करने के सारे दाव - पेच उनको आते थे । कानूनन ग़लती करके फिर कानूनन तौर पर कैसे बचाव करना है ? उनको अच्छी तरह से ज्ञात था। उनसे कई उच्च तथा निम्न मुलाज़िम भी डरते थे। यहाँ तक कि कई वकील भी उनसे भय खाते थे। उन्होंने अपने गांव में कई एकड़ भूमि दो नम्बर में बनाई थी । मोहल्ले में, गांव में, शहर में, रिश्तेदारी में, उन्होंने काफी दुश्मनी पाल रखी थी । परन्तु वहाँ साथ - साथ पक्के दोस्त भी बहुत बनाए हुए थे। दोस्तों की दुख तकलीफ में पहुँच कर मदद करते थे। इतने ज्यादा चुस्त थे कि अपनी सेवा - निवृत्ति की सही तिथि के लिए वह अपनी जन्म तिथि सही करवाने के लिए पाकिस्तान चले गए तथा वहाँ से स्कूल का रिकार्ड लेकर कोर्ट में पेश करके अपनी जन्म तिथि सही ( दुरुस्त ) करवा के लगभग दो वर्ष उम्र घटाकर दो वर्ष अध्कि समय नौकरी की । वह अत्यंत भावुक तथा जज़्बाती व्यक्ति थे।
सेवा-निवृति के एक वर्ष पहले उनको कैंसर हो गया तथा वह लगभग तीन वर्ष तक इस बीमारी से पीड़ित रहे । ज्यादा तकलीफ होने के कारण उनको शहर के एक बड़े अस्पताल में दाखिल करवा दिया गया । रिश्तेदारी में उनसे मेरी बहुत बनती थी । मैं उनको बचपन से जानता था तथा मैं उनके बच्चों की उम्र का ही था । उनके परिवार से मेरा पुराना परिचय था ।
मैं अस्पताल में उनका हालचाल पूछने गया तो वह एक बैडॅ पर आँखें मूंद कर पड़े हुए थे, परन्तु कुछ होश में थे। मैंने उनके नज़दीक जाकर कहा - अंकल जी, सत् श्री अकाल! आपका क्या हाल है?
उन्होंने मुझे धीमी आवाज़ में जवाब दिया - बस इसी तरह ही है !
इतने समय में एक लेडी डाक्टर उनको देखने के लिए आई तो उसने मुझे कहा - मरीज़ के शरीर की सफाई कर दो ।
मैं अकेला ही उनके पास खड़ा था । मैंने एक कपड़ा लेकर उनके मुँह की लारें साफ की, मुँह साफ किया। हाथ - पैर साफ किए । उनके अंग साफ किए। उनसे बहुत बदबू आ रही थी।
लेडी डाक्टर ने मुझसे कहा - आपका इनके साथ क्या रिश्ता है ? इनको साफ करने के लिए तो इनके परिवार के लोग भी कम ही आते हैं, सफाई वाले सेवादार से ही साफ करवाते हैं क्योंकि इनसे बदबू बहुत आती है, सहन करने के काबिल नहीं होती। आपका इन से क्या रिश्ता ? आप ने तो बड़े अच्छे सलीके के साथ, इत्मीनान के साथ इनके शरीर की सफाई की है ।
मैंने लेडी डाक्टर से कहा - डाक्टर साहिबा! एक मिटटी का मिट्टेी से क्या रिश्ता होता है ? यह तो मिट्टेी पड़ी है, जिस से केवल दवाईयों की बदबू आ रही है, जिस्म की बदबू नहीं आ रही । ख़ैर ! वह दवाई देकर चली गई ।
अंकल जी का जिस्म भूतनुमां बन चुका था। सूखी तोरी ( लौकी ) जैसा जिस्म । आँखें अन्दर को धंसी हुई । मुँह का फैलाव कानों तक चला गया । जबाड़े बीच में ध्ँस गए । सिर के बाल झड़ गए । केवल दिमाग़ की खोपड़ी ही नज़र आ रही थी। हाथ - पैर सुकड़े और मुड़े हुए । जिस्म एकदम काला स्याह, जैसे कोई डरावना भूत हो। उनको पता था कि वह चंद दिनों के महमान हैं। डाक्टरों ने जवाब दे दिया था।
उनके सिरहाने के समीप, मैं उनके चेहरे के बिल्कुल सामने खड़ा था । मैंने बहुत धैर्य से कहा - अंकल जी, ज़िंदगी अब कैसी महसूस होती है ?
उन्होंने धीमी सी आवाज़ में कहा - यार, मैं बहुत जज़्बाती तथा भावुक आदमी रहा हूँ । लोगों के पीछे लग जाता था । और दूसरों का नुक्सान कर देता था । दिल करता है उठकर उन सब से मुआफी मांगकर आऊँ, जिनके साथ मैंने ज़्यादतियाँ की हैं। जीवन की सारी लीला दिमाग़ में चल-चित्रा की भाँति घूम रही है। बचपन से लेकर अब तक सब कुछ याद आ रहा है। अच्छा बुरा सब कुछ याद आ रहा है। लोगों से ज्यादातिएं बहुत की हैं मैंने । तथा वह धीमी आवाज़ में रूआंसे हो उठे।
लम्बे लम्बे आंसू उनकी आँखों के छोरों से निकल कर मुँह को आ रहे थे। एक जीवन का आख़िरी, अंतिम समय । पश्चाताप में नीरसता की दुखद घड़ी ।
वह रूआंसी मुद्रा में संभल नहीं रहे थे । मैंने उत्सुकता से कहा - अंकल जी, आप अब वापिस नहीं जा सकते। आप अब आगे की ही यात्रा करेंगे। आप मुझे यह बताएँ कि हमको कैसे जीना चाहिए ? एक आदमी को कैसे जीना चाहिए ? ज़िंदगी क्या है ?
उन्होंने ईशारे से मेरे से काग़ज़ तथा पैन मांगा । मैंने काग़ज़ का एक टुक्ड़ा तथा पैन उनको दे दिया, उन्होंने उस काग़ज़ ऊपर केवल एक शब्द लिख दिया फलव!
ओंकार नगर, गुरदासपुर ( पंजाब ) मो: 98156-25409
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