सत्येन्द्र गोविन्द
इस धरा पर ईंधनों-सा जल रहा है मन हमारा
और उड़ती जा रही है ज़िन्दगी यह भाप बनकर
.
हम बदलकर तथ्य सारे
रोज़ अनुसंधान करते
हर छलावे पर स्वयं की
जीत का अभिमान करते
कीचड़ों में पंकजों-सा खिल रहा है मन हमारा
पानियों पर मिट रही है ज़िन्दगी यह छाप बनकर
.
हम समय की गुत्थियों का
कुछ अलग ही अर्थ समझे
भ्रांतियों का आकलन
करना हमेशा व्यर्थ समझे
हर सड़क पर घोटकों-सा दौड़ता है मन हमारा
कुछ समय का शोर करती ज़िन्दगी यह टाप बनकर
.
चंद ख़ुशियों के निमंत्रण
की भला क्या आस करना
सीखना होगा स्वयं के
कष्ट का परिहास करना
मंदिरों में धा धिनक धिन बज रहा है मन हमारा
ढोलकों पर पड़ रही है ज़िन्दगी यह थाप बनकर
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