स्वरुप
सहरा में जब भी ख़ुद को पुकारा तो डर लगा,
थे काफ़िले की भीड़ में तनहा तो डर लगा।
पर्दा रहा तो देखने की आरज़ू रही,
हटने का बस गुमान हुआ था तो डर लगा।
देखा किए ग़ुरूर से ता -उम्र हम जिसे,
उस आइने ने अस्ल दिखाया तो डर लगा।
मन्ज़िल की जुस्तजू में सफ़र का ये फ़ासला,
कम हो गया है इतना ज़ियादा तो डर लगा।
शर्तें हमारे सामने जीने की क्या रखीं,
मरने का हौसला न हुआ था तो डर लगा।
कश्ती के डूब जाने का इम्कान तो न था,
पर नाख़ुदा ने शोर मचाया तो डर लगा।
आँखों से छुप गया तभी राहत की सांस ली,
फिर से वो अगर लौट के आया तो डर लगा।
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 21 फ़रवरी 2022
सहरा में जब भी ...
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