रीतुगुलाटी ऋतंभरा
बहु बेटा से इतर जब सासू माँ ने अपने नये घर हवन पूजन करवाया तो बहू को अनमने मन से आना पड़ा। सासू माँ ने स्वागत मे कोई कमी न छोड़ी थी। एक आदर्श बहू का तमगा लेने की बारी अब बहू की थी। अपनी तरफ से वो अच्छा कर रही थी ... पर ये क्या! साँयकाल होते - होते उसकी गारंटी खतम हो गयी। काम करने की। जैसे - तैसे सासू माँ ने रात का खाना निपटाया। अब अगले दिन भी उसने हाथ खड़े कर दिये और वापिस जाने हेतु पैकिंग के बहाने कमरे में ही घुसी रही। इधर रात के जूठे बरतन मुँह चिड़ा रहे थे। जब बेटे ने अपनी पत्नी का ये हाल देखा तो वो भीतर ही भीतर कुड़ने लगा। समझ गया। मेरी माँ ने मुझसे इतर ये घर को क्यों चुना? मेरे बार - बार कहने पर भी माँ मेरे साथ क्यों नही रहना चाहती? तभी माँ ने बेटे के मन की बात को महसूसा। उसने प्यार से बेटे के सिर पर हाथ फेरा, और भारी मन से कहा - बेटा मैं तेरी गृहस्थी खराब नहीं कर सकती। तुझे सब पता है फिर क्यों जिद करता है मुझे अपने पास रखने की। जो मेरे घर आकर मेरी किचन मे मदद नहीं कर सकती। वो अपने घर क्या करेगी? ये उसकी सासु माँ का घर है,उसका नहीं। वो मदद चाहकर भी नहीं करेगी। नम आँखो से बेटे की चुप्पी देख माँ सब समझ रही थी,और हालात व वक्त की नजाकत को देखकर चुपचाप शगुन का लिफाफा बहू को देकर बहू के लिये नाश्ता बनाने लगी। इधर बेटा चाहकर भी कुछ न कह सका ।
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