इस अंक के रचनाकार
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रविवार, 20 फ़रवरी 2022
परेश दबे ’साहिब’ की ग़ज़लें
1
बैठा हूं तेरी राह में खुद का जहाँ बिसार कर,
वक्त का कारवाँ गया लम्हों के कुछ गुबार कर।
आप करें दुआ मियां सहरा के शोगवार की,
दे गया है सराब मो तश्रगी में निथार कर।
ये फटा बादबान है और गँवार नाखुदा है,
हाए भँवर में कश्ती को कौन गया उतार कर।
चुँभ गया काँटा है मुझे तेरे गुलोबहार का,
सोचता हूं कभी किसी रोज खि्जाँ निहार कर ।
मछलियाँ दो मरी मिली, पोखरा बह गया कहीं,
हाल पे मेरे फ़िक्र तुम आके न ग़मगुसार कर।
2
कोई रुठा है तो अब के मनाए कोई,
बीती बातों की कहानी न सुनाए कोई।
उस समंदर से ही आई उफनती मौजे,
डूबता मेरा सफ़ीना न दिखाए कोई।
मैं गुलों की गली में आन फँसा हूँ यारो,
डर रहा हूँ मियां काँटे न बिछाए कोई
साकीकी है ख़ता मैं गिर पड़ा उसके दर पे,
चैन की चैन है अब के न उठाए कोई।
मैं मुहब्बत की डगर तब ही चलूँगा यारो,
पानी में आग लगा दो, न बुझाए कोई।
याद का डेरा उठाके चले जाओ ’साहिब’
अब यहाँ कोई न आए के न जाए कोई।
3
चले आओ, ग़मों का बादशा हूँ,
कसक का, टीस का मैं आसरा हूँ।
न पहुँचेगी सदाअें देख लेना,
मुझे मैं दूर जब से देखता हूँ।
तुम्हें थी तीरगी से ये शिकायत,
के दीये की तरह कैसे बुझा हूँ।
ख्¸यालों से मैं निकलूँ तो बताऊ,
ख्¸ायालों से अलग क्या सोचता हूँ।
जहाँ जल भुन गई परछाई तेरी,
वही मैं आदमी सहरा- नुमा हूँ।
कमाने का कहूँ करतब तुम्हें क्या,
नज़र के तीर से घायल पड़ा हूँ।
ये कैसा राब्ता तुमसे हुआ के,
मेरे हिस्से में अब मैं कम बचा हूँ।
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