कमलेश राणा
प्राचीनकाल में वनों में गुरुकुल हुआ करते थे। वहीं प्रकृति के सानिंध्य में शिष्य शिक्षा प्राप्त करते थे। गुरु का उद्देश्य शिष्य का सर्वांगीण विकास करना होता था। सभी के लिए समान नियम थे। चाहे अमीर हो या गरीब।
शिष्यों को अपनी दैनिक जरूरत का सामान खुद ही जुटाना पड़ता था। एक नियम यह भी था कि प्रत्येक शिष्य 5 घर जा कर भिक्षा माँगता था। कुछ मिल गया तो ठीक, न मिला तो भी संतुष्टए।
इसका उद्देश्य शिष्य के अहंकार के दमन के साथ - साथ उसके मन में संतोष की भावना को विकसित करना भी था। कालांतर में लोगों ने इसे व्यवसाय बना लिया।
अच्छे हट्टे - कट्टे युवा भीख मांगते दिखाई देते हैं। ये कामचोरी की पराकाष्ठा है। एक बार उन्हें काम बता दो तो ऐसे गायब हो जाते हैं, जैसे गधे के सर से सींग।
एक बार हम लोग कॉलोनी में धूप में कुर्सी डाल कर बैठे हुए थे। सर्दियों के दिन थे। हमारे घर के पास ही एक चक्की है। उसके सामने आटो आ कर रुका और उसमें से बड़े - बड़े थैले लटकाये चार व्यक्ति उतरे और चक्की वाले से बात करने लगे।
जब वो बाहर आये तो उनके थैले खाली थे। यह प्रक्रिया हर 2 - 3दिन बाद दोहराई जाती।
हमारी उत्सुकता बढ़ी तो एक दिन हमने उनमें से एक कम उम्र के लड़के को बुला कर पूछा कि यहाँ किसलिए आते हो।
वह बोला - हम भीख मांगते हैं और बचे हुए आटे को बेचने आते हैं यहाँ।
हम सन्न रह गये। क्योंकि उस चक्की से कॉलोनी के काफी लोग आटा खरीदते थे और अनजाने में ही संपन्न परिवार के लोग भीख में मिला आटा खा रहे थे।
कितना घृणित कार्य और धोखा है ये। हम उन पर दया करके मदद करते हैं और वो हमारी कोमल भावनाओं का गलत फायदा उठाते हैं।
हमें बेवकूफ बनाकर मदद जरूर करें,पर सिर्फ अक्षम और जरुरतमंदों की। युवकों को परिश्रम के लिए प्रोत्साहित करें।
ग्वालियर
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