सरोज अग्रवाल
आज तुम्हारी छत पर बारिश की बूंदे,
मोती की तरह बिखर रही थी!
मैं भी बारिश में गीली साड़ी में लिपटी!
छोटी बच्ची बन उछल रही थी,
कितना सुकून था उस बारिश के पानी में,
कि मैं अंतर्मन तक भीग रही थी!
अंग अंग पोर पोर खिल उठे इस मौसम में,
नैनो से मदिरा छलका रही थी!
बारिश के संगीत की मधुर स्वर लहरी में,
ढप ढोल मृदंग ताल गूंज रही थी!
बेसुध सी नादान बावरी मैं अपनी धुन में,
बिन घुंघरू पहने नाच रही थी!
फिर भी तुम्हारी यादो की खिड़की में,
मैं चुपके चुपके से झांक रही थी!
डूबी कुछ इस तरह तुम्हारे ख्यालों में,
कि मैं खुद ही खुद को भूल रही थी!
तपन हो गई अब बारिश की बूंदों में,
तन मन में आग लगा रही थी!
अपने बदन पर लिपटी सूखी साड़ी में,
जल बिन मछली छटपटा रही थी!
मोती की तरह बिखर रही थी!
मैं भी बारिश में गीली साड़ी में लिपटी!
छोटी बच्ची बन उछल रही थी,
कितना सुकून था उस बारिश के पानी में,
कि मैं अंतर्मन तक भीग रही थी!
अंग अंग पोर पोर खिल उठे इस मौसम में,
नैनो से मदिरा छलका रही थी!
बारिश के संगीत की मधुर स्वर लहरी में,
ढप ढोल मृदंग ताल गूंज रही थी!
बेसुध सी नादान बावरी मैं अपनी धुन में,
बिन घुंघरू पहने नाच रही थी!
फिर भी तुम्हारी यादो की खिड़की में,
मैं चुपके चुपके से झांक रही थी!
डूबी कुछ इस तरह तुम्हारे ख्यालों में,
कि मैं खुद ही खुद को भूल रही थी!
तपन हो गई अब बारिश की बूंदों में,
तन मन में आग लगा रही थी!
अपने बदन पर लिपटी सूखी साड़ी में,
जल बिन मछली छटपटा रही थी!
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