डॉ. पीसी लाल यादव
जेन हा मया के गीत गाथे,बइरी ला घलो मीत बनाथे।
जिनगी के उरभट रद्दा म ओ, हार के घलो जीत जाथे।।
काँटा के बीच मा रहिके, फूल बरोबर जे मुस्कावय।
तन - मन हा छेदाय तभो ये, काँटा ल घलो ममहावय।
मन मा जेन ह पिरीत जगाथे,नवा ले नवा रीत चलाथे।
जिनगी के उरभट रद्दा म ओ, हार के घलो जीत जाथे।।
नंदिया कस उछल - उछल के,दऊँड़े जेनहा बीरो कोती।
ओखरे ओली म सकलावय,सुग्घर करम उज्जर मोती।
अनहित ल घलो हित बनाथे, मन म जे परतीत जगाथे।
जिनगी के उरभट रद्दा म ओ, हार के घलो जीत जाथे।।
अपन - बिरान सबो के मन मा, बोवँय जेन मया - बिरवा।
ओखर ले दुरिहा - दुरिहा रहिथे,छ्ल - कपट के किरवा।।
मनखेपन के नीत लमाथे,अंगरा ल जेन सीत बनाथे।
जिनगी के उरभट रद्दा म ओ, हार के घलो जीत जाथे।।
साहित्य कुटीर, गण्डई
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