रीना तिवारी
कभी - कभी मेरी कलम,
निःशब्द निस्तब्ध हो जाते हैं।
देख जग विध्वंस को,
जड़ चित्रित हो जाते हैं।
अजीब- सी असमंजस होती है,
जब देखती हूं,
कंपकंपाते हाथों से किसी वृद्ध को,
असमर्थ आंसू पोंछते हुए,
अपनी ही अश्क रोकने में,
असमर्थ हो जातीं हूं।
कभी - कभी मैं स्वयं ही
निःशब्द हो जाती हूं।
सिहर उठती हूं यह सोच,
देवी की पूजा करने वाले,ए
जब किसी अबला की इज्जत,
तार- तार कर,
अपनी पुरुषत्व पर हंसता है,
देख इंसान की दोहरे चरित्र जड़त्व में समा जाती हूं
कभी - कभी मैं स्वयं निःशब्द हो जातीं हंू।
आश्चर्य होता है, ईश्वर के बनाए मनुष्य पर,
जब धर्म के नाम,पर दिलों में भेद रखते हैं।
तेरा मेरा कहकर,
अपनी इंसानियत को ही बेचते हैं।
देख इस विचित्र परिभाषा को,
मैं कहीं खो - सी जाती हूं।
कभी - कभी मैं स्वयं निःशब्द हो जाती हूं।
क्या ईश्वर की बनाई,इस खूबसूरत दुनिया को,
बिखरने से रोक पाएगी मेरी कलम।
जो उजड़ रहे उपवन सारा,
क्या खिला पाएगी मेरी कलम।
हां निशब्द हूं ,जड़त्व हूं ...।
विवश क्षुब्ध हूं मैं और मेरी कलम ...
कभी - कभी मेरी कलम,
निःशब्द निस्तब्ध हो जाते हैं।
देख जग विध्वंस को,
जड़ चित्रित हो जाते हैं।
अजीब- सी असमंजस होती है,
जब देखती हूं,
कंपकंपाते हाथों से किसी वृद्ध को,
असमर्थ आंसू पोंछते हुए,
अपनी ही अश्क रोकने में,
असमर्थ हो जातीं हूं।
कभी - कभी मैं स्वयं ही
निःशब्द हो जाती हूं।
सिहर उठती हूं यह सोच,
देवी की पूजा करने वाले,ए
जब किसी अबला की इज्जत,
तार- तार कर,
अपनी पुरुषत्व पर हंसता है,
देख इंसान की दोहरे चरित्र जड़त्व में समा जाती हूं
कभी - कभी मैं स्वयं निःशब्द हो जातीं हंू।
आश्चर्य होता है, ईश्वर के बनाए मनुष्य पर,
जब धर्म के नाम,पर दिलों में भेद रखते हैं।
तेरा मेरा कहकर,
अपनी इंसानियत को ही बेचते हैं।
देख इस विचित्र परिभाषा को,
मैं कहीं खो - सी जाती हूं।
कभी - कभी मैं स्वयं निःशब्द हो जाती हूं।
क्या ईश्वर की बनाई,इस खूबसूरत दुनिया को,
बिखरने से रोक पाएगी मेरी कलम।
जो उजड़ रहे उपवन सारा,
क्या खिला पाएगी मेरी कलम।
हां निशब्द हूं ,जड़त्व हूं ...।
विवश क्षुब्ध हूं मैं और मेरी कलम ...
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