“ भँवरे का सफर “
भँवरा रात को फूल में दबा रह गया
रातभर फूल का आग़ोश सह गया।
यों ख़ुशबू तो उसे बहुत लुभाती थी
पर क्या करे, उसे नींद नहीं आई थी।
रंगीन रही थी उसकी, वो रात बड़ी
बहुत स्वस्थ लगी थी उसे वो घड़ी
सुबह-सुबह ज्यों ही पंखुड़ियाँ खुली
भँवरे की आँखें थी जरा सी अधखुली।
“जरा सा रस और पीकर फिर चलता हूँ
फूल की कोमलता पर जरा मचलता हूँ।”
फूल भी उसे स्नेह से यों सहलाने लगा था
लगता था वो उसका मन बहलाने लगा था।
रात की तन्हाई में वो कुछ कहने लगा था
बस बहुत हुआ,अब तो जाओ, मेरे भैया।
जाओ, कहीं ओर अब खुलें में सैर करो
छोड़ दो किसी और के लिए, ये शैय्या।
अब,भँवरा भोला सा मन लिए ही उड़ चला
पंख फैला कर किसी और तरफ़ मुड़ चला।
फूल की सुगंध से हुआ था,वो बावला
जाना किधर था, उसे पता नहीं चला।
गुनगुनाने लगा वो अपनी पुरानी धुन में
वो गया, वो देखो एक और फूल मिला।
बैठा रहा वो उस फूल पर बड़ा अनमना
कुछ पराग छोड़ गया वो फिर उड़ चला।
राहगीर था वो इस इस सुंदर बगिया का
सफर ही उसका काम था, वो तो चला।
भँवरा पुन: किसी फूल पर मँडराने लगा
महफ़िल अब खुलकर वो सजाने लगा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें