ऑ॑धी में तो दीप, जलाना दूभर है।
पत्थर पर भी फूल, खिलाना दूभर है
ऑ॑खों में जब अश्रु, भरे हों सच मानो,
खुशियों के तब गीत, सुनाना दूभर है।
राजेंद्र रायपुरी
जाग रहा जो उसे, जगाना दूभर है।
महावीर ने ढूढ, लिया था सीता को,
गीता का अब पता, लगाना दूभर है।
जब निभता हो नहीं,झुकाए सिर को भी,
फिर तो कह दो साफ,निभाना दूभर है।
वर्षा हो घनघोर, अगर तो भी खे लें,
तूफानों में नाव, चलाना दूभर है।
काट रहे सौ पेड़, लगाते एक नहीं,
ऐसे में खग-विहग, बचाना दूभर है।
जिसका जो दो उसे, बिना आनाकानी,
नहीं कहे तो गले, लगाना दूभर है।
आना केवल चार,खरचते आठ अगर,
फिर तो घर का बोझ, उठाना दूभर है।
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