●अजय चन्द्रवंशी
कविता कर्म बिना सम्वेदना के सम्भव नहीं है। व्यक्ति परिवेश से
इन्द्रियबोध द्वारा अन्तःक्रिया करता है, जो उसकी सम्वेदना को प्रभावित
करता है। मनुष्य अपने अस्तित्व से ही प्रकृति से जुड़ा है, इसलिए प्रकृति और
उसके उपादान स्वभावतः उसे प्रभावित करते हैं। वह प्रकृति से अपने जीवन के
सुख-दुःख को जोड़ता है, इसलिए फूलों का खिलना उसे आह्लादित करता है तो पतझड़
उसे उदास भी करता है।
प्रकृति से घनिष्टता के कारण कविताओं में प्रकृति चित्रण स्वाभाविक है।
मगर मनुष्य का जीवन केवल इन्द्रियबोध से संचालित नहीं होता उसके पास विवेक
भी है जिससे वह अपने सामाजिक जीवन का निर्वहन करता है। दूसरी बात सभ्यता के
विकास ने मानव जीवन को नया परिवेश भी दिया है। आज सर्वत्र जंगल और पहाड़
नहीं हैं, कस्बे और महानगर भी हैं। कहना न होगा उनका परिवेश भी भिन्न है।
कविता यदि प्रकृति के सौंदर्य और और मनुष्य के उसके साथ साहचर्य का चित्रण
है तो जीवन की आलोचना भी है।वह संवेदनात्मक है तो ज्ञानात्मक भी। इसलिए
यदि कविता महज विचार नहीं है तो महज प्रकृति का चित्रण और लोकजीवन का
इतिवृत्त भर भी नहीं है। हमारे साहित्य की परम्परा में लोक केवल
मानवशास्त्रीय 'फोक' नहीं है इसलिए इसका अर्थ केवल ग्रामीण जीवन नहीं अपितु
शहरी कामकाजी वर्ग का जीवन भी शामिल है।
मृदुला सिंह की कविताओं की चर्चा के प्रसंग में यह भूमिका इसलिए भी कि इधर
एक प्रवृत्ति लोक की संकीर्ण समझ की दिखाई पड़ती है,जिसके अनुसार लोक का
अर्थ केवल गांव और जंगल है। वे इसे केदार, नागार्जुन और विजेंद्र की परंपरा
से भी जोड़ते हैं मगर उनसे केवल लोकजीवन का सौंदर्य ग्रहण करते हैं उसका
संघर्ष छोड़ देते हैं।
'पोखर भर दुख' मृदुला सिंह का पहला कविता संग्रह है।शीर्षक इसी नाम की एक
कविता से लिया गया है। उनकी कविताओं में लोकजीवन का जहां सौंदर्य है वहीं
उसकी विडम्बना और संघर्ष भी है जहां 'गुलबिया' की "सेमल पात सी
हँसी/गुदगुदाती रही है", 'बसन्त और चैत' में "खलिहानों की रानी ने/छेड़ दिया
है चैती का मादक राग", चिड़ियों से आकांक्षा है "आओ साथी बन जाओ/ बतियाएंगे
सहलायेंगे/एक दूसरे का दुख", 'दूज का चाँद' "पेड़ की नोंक पर टंका/दूज का
सलोना चाँद/बेदाग है/अमावस से निकलकर खिला है/ आकाश के माथे पर", और
रातरानी ! "कल खिली थी न/रातरानी वहाँ/झाँका होगा उसने/उचक कर
तुम्हें/खिड़की से पार/तुमने छुआ होगा उसे/ तभी तो महकती रहीं थीं/मेरी
हथेलियां/देर तक।" है।
वहीं लोक का दूसरा पहलू "गांव की कच्ची दीवारों पर/ गेरूआ रंग से लिखे
हैं/शिक्षा अधिकार के/बहुत क्रांतिकारी नारे/उसकी पोती स्कूल नहीं
जाती/लकड़ा की पत्तियां और फूल चुनती है/कोठार नहीं/अपना पेट भरने के लिए"।
गांव की लड़कियों में यदि श्रम का सौंदय है तो आगे बढ़ने की चाह भी "लेकिन
मुझे बहुत अच्छा लगा था/जब तुमने उस दिन कहा था/कि तुम रोपा लगा रही
थी/इसलिए नहीं ले सकी थीं वक़्त पर दाख़िला/ कितनी बेफ़िक्र थी तुम्हारी
आवाज़!" कामगार औरते "देवारी में खर्च कर देती हैं/सारे पैसे हाड़तोड़ मेहनत
के/शराबी मर्द देता है गालियां दूसरे पहर तक/मुस्कुराती हैं दीये भर/ये
कामगार स्त्रियां समेटती हैं/पुरानी साड़ी का आँचल/ढांप लेती हैं अधखुली
छाती/छुपा लेती हैं अपना दुख।"
लोक
समाज में कई अंधविश्वास और असमानता भी होते हैं, कवयित्री इसके प्रति सजग
है इसलिए उसका मन प्रश्न करता है "सूरज की लाली से पहले आकर/बखरी बुहारने
वाला देवशरण/सौ गज की दूरी पर अपना गमछा-पनहीं क्यों रखता था" और इसलिए यह
आत्मालोचन भी "इतिहास की कुलीनता का रक्त/जो हमारी धमनियों में बहता है/वह
तुम्हारे पसीने से कम गाढ़ा क्यों है।" पालकी धोने वाले मजदूर "काले काँधों
पर उधड़ी हुई चमड़ी/निशान है इंसानी फर्क के/पैरों की सूजी शिरायें/अंतड़ियों
में हो रहे युद्ध को/हौसला देती हैं/यह सब दिखता नहीं/पर्दे पड़ी आँखों को"।
आज भी "चौथी बेटियां" तीसरे भाई के साथ जुड़वा होने पर बचती है!
इधर कार्पोरेट 'विकास' से कितने 'भोलवा' की ज़मीन दफ़न होती जाती है और
अंततः भोलवा छला जाता है। दूज का चाँद सुंदर होता है मगर "न मिला हो कई
दिनों से काम/तो यह खूबसूरत चाँद/हँसिये की शक़्ल में/मुँह बिराता है" इस
तरह लोक का सौंदयबोध भी परिस्थिति सापेक्ष होता है।
मृदुला जी पेशे से अध्यापिका हैं, इसलिए उस परिवेश की कई कविताएं हैं।
दूसरी बात वे आदिवासी अंचल के शहरी कॉलेज में पढ़ाती हैं इसलिए गाँव और शहर
दोनो के रंग उनकी कविताओं में घुली हुई हैं। फिर उनके अपने मायके का परिवेश
है।एक स्त्री होने के नाते स्वाभाविक रूप से स्त्री जीवन के अनुभव कविताओं
में काफी हैं। स्त्री अपनी अस्मिता के प्रति जागरूक हुई है, हो रही है,
इसे हम सामान्यतः स्त्री विमर्श के अंतर्गत रखते हैं। स्त्री होने के अपने
विशिष्ट अनुभव होते हैं, मगर एक मनुष्यगत अनुभव भी होता है जो स्त्री-पुरूष
के लिए समान होता है, मसलन रोटी की समस्या, जिसका सीधा सम्बन्ध आर्थिक
समस्या से है। इसलिए रचनाकर्म का वर्गीय आधार भी होता है। कई बार स्त्री
विमर्श में इस वर्गीय आधार को नजरअंदाज किया जाता है, मगर मृदुला जी इसके
प्रति सजग हैं। इसलिए वे आदिवासी छात्राओं, 'गुलबिया', 'कामगार औरतों',
कस्बाई कामकाजी महिलाओं, 'रीता ऑटो वाली', कचरे का रिक्शा खिंचने वाली
महिलाओं की समस्या को समझती है।
यही कारण है कि "स्वच्छता मिशन की खाँटी नायिकाओं" और वास्तविक रूप से
कचरा इकट्ठा करने वाली स्त्रियों का अंतर समझती हैं। स्त्रियां यदि सौंदर्य
और प्रेम से भरी हैं तो 'शाहीन बाग की औरतें' संघर्ष का प्रतीक भी हैं।
'फाइनल ईयर की लड़कियां' "मुस्कुराती हैं/खिलखिलाती हैं/स्कूटी के शीशे
में/खुद को संवारती/कॉलेज बिल्डिंग के साथ/सेल्फी लेती हैं" तो "कस्बाई
कामकाजी महिलाएं" इतनी व्यस्त होती हैं कि "काम पर जाते/इनके सर के
पल्ले/अब आ गए है कांधे पर/और भर कलाई चूडियों की जगह/ले ली है रिस्टवाच
ने"
इस तरह उनकी कविताओं के विविध रंग हैं। बच्चे "पूरी दुनिया के बच्चों का
किल्लोल/एक जैसा होता है/चाहे वह जिस भी देश जाति/और धर्म के हों"। दादी का
जीवन "तुम्हारे श्यामल तन पर/झुर्रियां नही हमारी तकलीफें थी/जिन्हें तुम
सोख लेती थी/दीये की बाती सी"। माँ से सीख " तुम्हारी कहानी सुनते बड़ी हुई
हूँ/पैसा-पैसा जोड़ा है प्रतिरोध/समय के गुल्लक में/फोडूंगी एक दिन
जरूर/बहरूपिये समाज के माथे पर"। रेल की सवारी में 'सौंदर्य प्रेमी'
प्राकृतिक दृश्यों में खो जाते हैं मगर यहां कवयित्री की दृष्टि जनरल
डिब्बे पर ठहरती है "रोज देश की आधी दुनिया/इसी तरह डालने छोटे छोटे सपने
बचाती/निकल पड़ती है/जिंदगी के जद्दोजहद में"। यही दृष्टि 'दीवार के उस पार'
देख पाती है जहां "असली भारत रहता है"
प्रेम की सम्वेदना "यह अक्सर ही होता है/तुम में डूबी तुम्हारी मौजूदगी
को/ महसूस करते छान लेती हूँ/एक जोड़ा कप चाय/ और अकबक बिसूरती जाती हूँ"।
मगर ऐसे क्षणों में भी कविमन की सम्वेदना " घर को लौटते/कामगार बाशिंदों को
ताकती हूँ/उनके चेहरे खिले से होते हैं/सोचती हूँ/मिली होगी आज इन्हें
मुकम्मल मजूरी/मानी गई होगी इनकी शर्त/तभी तो राशन से भरे हैं/इनके थैले/
उनके बच्चे कुरकुरे का पैकेट/थामे चल रहे होते हैं साथ उछलते/खुशियों की
तरह/मन कहता है/काश हम साथ देख सकते यह सुंदर दृश्य"। लौट जाती है उधर भी
नज़र क्या कीजे!
मृदुला जी की कविताएं कहीं भी अपनी 'एकांत दुनिया' में नही रमी रहती। वह
अपने परिवेश अपने सरोकार से बराबर संपृक्त रहती हैं। ज़ाहिर है यह कवयित्री
की जीवन दृष्टि है जो कविताओं में झलक पड़ती है। अपने परिवेश के जीवन और
विडम्बनाओं से विमुख कुछ लोगों को सम्भव है इनमें 'वैचारिक आग्रह' दिखाई
पड़े। मगर यह जीवन का आग्रह है जो 'एकांत समाधि' से लाख गुना बेहतर है।
मृदुला जी भाषा बोलती जुबान में है, और सीधे अपनी बात कहती हैं। अवश्य कई जगह बिंब भी उभर आया है "समंदर जितने ज़ख्म पर/किसी ने मल दिया है/चुटकी भर नेह की दवा/मिठास की पट्टी बांध गया/मन की खुली छत विदेह पर"। लोकभाषा के कई शब्द और क्रियाओं का प्रयोग स्वाभाविक ढंग से हुआ है जिससे अभिमिव्यक्ति बाधित नही हुई है। यह उनका पहला संग्रह है, उनकी अभिव्यक्ति की 'अपनी शैली' अभी विकासमान है, उम्मीद है आगे वह और विकसित होकर उनकी कविताओं में दिखाई देगी।
मृदुला जी भाषा बोलती जुबान में है, और सीधे अपनी बात कहती हैं। अवश्य कई जगह बिंब भी उभर आया है "समंदर जितने ज़ख्म पर/किसी ने मल दिया है/चुटकी भर नेह की दवा/मिठास की पट्टी बांध गया/मन की खुली छत विदेह पर"। लोकभाषा के कई शब्द और क्रियाओं का प्रयोग स्वाभाविक ढंग से हुआ है जिससे अभिमिव्यक्ति बाधित नही हुई है। यह उनका पहला संग्रह है, उनकी अभिव्यक्ति की 'अपनी शैली' अभी विकासमान है, उम्मीद है आगे वह और विकसित होकर उनकी कविताओं में दिखाई देगी।
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कृति- पोखर भर दुख(कविता संग्रह)
लेखिका- मृदुला सिंह
प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर
कीमत -₹150
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प्रकाशन- बोधि प्रकाशन, जयपुर
कीमत -₹150
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कवर्धा(छत्तीसगढ़)
मो. 9893728320
मो. 9893728320
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