सुहात हे,सुहात हे !
-- राजकुमार 'मसखरे'
सुहात हे,,,सुहात हे,,,,सुहात हे,,,
किसानी के दिन-बादर, एक मन के आगर
दिल म ख़ुसी छात हे,,,,,,,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......
बरखा रानी के रुन-झुन
भँवरा ह करय भुन -भून,
बिजुरी ह नाचै छम-छम
बादर ह गरजय घम-घम !
इंखर असड़हूँ बानी भात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......
मेचका ह करय टर-टर
पुरवाही चलय सर-सर,
झिंगरा मिलावय ताल
चाँटी के तरी-उपर चाल !
डहर-डहर माटी ममहात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे......
नाँगर बइला अरर- तरर
धान के बाँवत छर-छरर,
लकर धईंयाँ आना-जाना
बिधुन हो के गावय गाना !
मनटोरा ददरिया धमकात हे,,,
सुहात हे..सुहात हे..सुहात हे.....
इस टेशू,किंशुक पलाश के
है ये धरा में कई-कई नाम,
स्वमेव कहीं भी उग आता
इसका नही है कोई दाम !
देखो वीरान में भी है राग,
न बगिया न ही कोई माली
न ही उसे कोई सींचता है
बिना पानी के देखो लाली !
फिर भी वर्ष में एक बार
खिल उठता है इठलाकर ,
ढाक के वही तीन पात
मुहावरा को झुठला कर !
फिर झूम के बिखेर देती है
अपनी वह छटा और रंग,
तोड़ देती है वह मासूमियत
जचता रोम-रोम,अंग-अंग !
ये इनके उल्लास देख कर
अब कोई कैसे निराश होंगे,
उस पतझड़ के पलाश से
जरूर मुस्कराना सिख लेंगे !
-- राजकुमार मसखरे
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें