मिन्नी मिश्रा
रामलाल जब भी सोने जाता अपने जिगरी दोस्त
‘ मस्तिष्क ’ के ऊपर हाथ फेरना न भूलता । दिल की सारी बातें उससे बतियाता,
“मित्र ,मेरा ख्याल रखना, मुझे खुद से ज्यादा तुम पर भरोसा है ।”
पर,
आज कुछ अलग हुआ! दोस्त ने रामलाल को गाढ़ी नींद में दखल देते हुए कहा , “
सुनो, तुम्हारी पत्नी पेट से है । बताओ, होने वाले अपने बच्चे के बारे में
तुमने क्या सब सोचा है ?”
“
हाँ ! मैं बहुत खुश हूँ । बच्चे के लिए दुनिया की सारी खुशियाँ लूटा
दूँगा। उसके परवरिश में कोई कसर नहीं छोडूँगा | उसे बड़े इन्स्टीट्यूट में
पढ़ा कर बहो...त बड़ा आदमी बनाऊँगा ,चाहे जितने भी कष्ट मुझे झेलने पड़े ।”
“ रामलाल ! तुम्हारे सोच में कुछ कमी लग रही है! अभी औ..र सोचो मित्र ।”
“अरे.. ? अगर मेरी सोच में कुछ कमी लग रही है, तो तू ही बता दे।” जानने को इच्छुक रामलाल ने त्वरित जवाब दिया ।
“
मुझे सब पता चल जाता है ।तूने अपने संतान के बारे में अभी तक केवल दिल से
ही सोचा है -- 'उसे पढ़ा-लिखाकर बड़ा आदमी बनाएगा और बाद में उसकी शादी भी
धूमधाम से कर देगा । तब तेरी सारी जबाबदेही खत्म हो जाएगी । 'यही न?”
“हाँ..हाँ..बिलकुल सही। ” रामलाल ने तपाक से उत्तर दिया ।
"देख,
मध्य रात्री हो गई है। बहुत थक गया हूँ ,अब मैं भी सोना चाहता हूँ | परंतु
, एक जरूरी बात कहे देता हूँ, " तू अपने बुढापे के बारे में भी दिमाग से
सोच । घोर कलयुग बीत रहा है ! मतलब निकलने के बाद, लोगों को यहाँ खास को आम
बनाते भी देर नहीं लगती ! इसलिए मित्र, हाथ काटकर नहीं, हाथ बचाकर संतान
को पालना, ताकि बुढापे में तुम्हें हाथ नहीं फैलाने पड़े !”
रामलाल
की घंटों से बंद पड़ी आँखें सौ बाट बल्ब की तरह अचानक फक्क से खुली और
खुली की खुली रह गई । वह हड़बड़ाकर उठ कर बिस्तर पर बैठ गया । जैसे कोई
बुरी आशंका ने उसके अवचेतन मन को जोर से झकझोरा हो। ”
पटना,
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें