कमल सक्सेना
लुप्त होने लगीं आस्थाएं सभी,
सभ्यता रीत रस्मों को खाने लगी।
आज कैसा समय ने पहाड़ा पढ़ा,
जिंदगी हर कदम लड़खड़ाने लगी।
वर्षों पहले जो हमने कहानी सुनीं,
आज रानी वे राजा कहाँ खो गये।
सात परियाँ भी अम्बर में दिखती नहीं,
चंदा मामा भी जाने कहाँ सो गये।
आज रो रो के बच्चों को, असहाय माँ,
रोटियों की कहानी सुनाने लगी।
जिनकी शक्ति पर इस देश को गर्व था,
कहीं दिखती नहीं हैं वे अब स्ति्रयाँ।
जिनकी हिम्मत से हारा था यमराज भी,
आज दिखती नहीं हैं वे सावित्रियाँ।
आज सावित्री इंसान से हारकर,
अपनी पायल के घुँघरू बजाने लगी।
आज कैसा समय ने पहाड़ा पढ़ा,
जिंदगी पंथ में लड़खड़ाने लगी।
पश्चिमी सभ्यता में कहीं खो गयीं,
रानी झाँसी रानी ने हमको जो शिक्षाएं दीं।
आज सीता यहाँ पर बनी कल्पना,
जिसने पग पग पे अग्नि परीक्षाएं दीं।
आज सीता विमानों में परिचारिका,
बनके रावण को मदिरा पिलाने लगी।
आज कैसा समय ने पहाड़ा पढ़ा,
जिंदगी हर कदम लड़खड़ाने लगी।
’ कब तक मन का दर्द छुपाते’ काव्य संग्रह से साभार ...
कवि गीतकार साहित्यकार बरेली
इस अंक के रचनाकार
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सोमवार, 29 अगस्त 2022
लुप्त होने लगीें ...
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