पयडगरी,फुदकी
ठेठपन,
जो पहचान शेष थे
अब नहीं
सब बिखर गये
तिनकों की तरह।
चूल्हों की सतह से उठते
मासूम धुऍं
अस्तित्व ढूंढते रह गये
गगन के गर्त में।
बटकी में औंधे पड़े
धुले हुए चाऊॅंर,
ऑंच लेकर
कनोजी/गंजी
तप्त है,
ॲंधना आती नहीं
कैसे चूरेगा अब..?
कोदो-कुटकी से भात,
वह
मड़िया का पेज।
लगार के मानिंद
चोरहन भी..
तलाश करती है,
थोड़ा सा गढ़ाने
फर के साथ
रिश्ता निभाने,
पर सथरा में
नहीं है झोर।
काॅंवरा की कहानी
यही से प्रस्तावित
होकर गले में अरहज
जाती है...।
गुम होते गुमसुम हैं
ढेंकी,काॅंवर, बहेंगा
और...घोंटुल,
डिजिटल इंडिया के
हाईटेक बाजार में,
हरियाते खर्रू खुश हैं
पर के परछी द्वार में।
कहाॅं बचा है
नार-बिंयार को
चढ़ाने के लिए
ढेंखरा..?
सड़कों से पहुॅंच बनाते
प्रगति के ठूॅंठ,
खइपा खटखटाते
दोनो तरफ के बूट।
पद-पहियों की शोर से
सिसकती ये फिजाऍं,
क्या इतने खौफनाक हैं
उत्तर आधुनिक हवाऍं..?
महेंद्र बघेल
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