सुरेश सर्वेद
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
13 नवंबर 1917 श्योरपुर ग्वालियर में जन्में गजानन माधव मुक्तिबोध प्रगतिशील काव्यधारा और समकालीन विचारधारा के कवि थे। 1962 में उनके द्वारा तैयार की गई पाठयपुस्तक ’ भारत इतिहास और संस्कृति’ को सरकार द्वारा प्रतिबंधित किये जाने से उन्हें आघात पहुंचा और 1964 के आरंभ में वे पक्षपात के शिकार हो गये और 11 सितंबर 1964 को उनका निधन हो गया।
अपने अल्पायु में ही उन्होंने कई कालजयी रचनाओं की रचनाएं की। जीवन भर साहित्य और साहित्येतर प्रश्नों को लेकर चिंतित मुक्बिोध मास्टरी, रिपोर्टरी, और एडिटरी के मुश्किल दिनों के बाद 1958 में राजनांदगांव में प्रोफेसरी के दिनों में जीवन कुछ आसान रहा है। इसी दरम्यान उन्होंने ’ ब्रम्हराक्षस’ और ’ अंधेरे में’ जैसी महत्वपूर्ण कविताओं को कलमबद्ध किये।
गजानन माधव मुक्बिोध की ’ चाँद का मुँह टेढ़ा’ शीर्षक की कुछ लाईनें इस प्रकार है :-
चाँद का मुंह टेढ़ा है
कोलतारी सड़क के बीचो - बीच खड़ी हुई
गांधी की मूर्ति पर
बैठे हुए घुग्घू ने
गाना शुरू किया
हिचकी की ताल पर
साँसों ने तब
मर जाना
शुरू किया।
टेलीफोन - खंभों पर थमे हुए तारों ने
सट्टे के ट्रंक - कॉल - सुरों में
थर्राना और झनझनाना शुरू किया!
रात्रि का काला - स्याह
कन - टोप पहने हुए
आसमान बाबा ने हनुमान - चालीसा
डूबी हुई बानी में गाना शुरू किया।
मसान के उजाड़
पेड़ों की अँधियाली शाख पर
लाल - लाल लटके हुए
प्रकाश के चीथड़े
हिलते हुए, डुलते हुए, लपट के पल्लू।
सचाई के अध - जले मुर्दों की चिताओं की
फटी हुई, फूटी हुई दहक में कवियों ने
बहकती कविताएँ गाना शुरू किया।
संस्कृति के कुहरीले धुएँ से भूतों के
गोल - गोल मटकों से चेहरों ने
नम्रता के घिघियाते स्वाँग में
दुनिया को हाथ जोड़
कहना शुरू किया
बुद्ध के स्तूप में
मानव के सपने
गड़ गए, गाड़े गए!!
ईसा के पंख सब
झड़ गए, झाड़े गए!!
सत्य की
देवदासी - चोलियाँ उतारी गईं
उघारी गईं,
सपनों की आँते सब
चीरी गईं, फाड़ी गईं!!
बाक¸ी सब खोल है,
ज़िंदगी में झोल है!!
गलियों का सिंदूरी विकराल
खड़ा हुआ भैरों, किंतु,
हँस पड़ा ख़तरनाक
चाँदनी के चेहरे पर
गलियों की भूरी ख़ाक
उड़ने लगी धूल और
सँवलाई नंगी हुई चाँदनी!
और, उस अँधियाले ताल के उस पार
संभवतः मुक्तिबोध के समय भी भ्रूण हत्या का समाज में वर्चस्व था। इस पर उनका चिंतन ’ डूबता चाँद कब डूबेगा’ शीर्षक कविता में देखने को मिलता है :-
डूबता चाँद कब डूबेगा
अपनी अपराधी कन्या की चिंता में माता - सी बेकल
उद्विग्न रात
के हाथों से
अँधियारे नभ की राहों पर
है गिरी छूटकर
गर्भपात की तेज़ दवा
बीमार समाजों की जो थी।
दुर्घटना से ज्वाला काँपी कंदीलों में
अँधियारे कमरों की मद्धिम पीली लौ में,
जब नाच रही भीतों पर भुतही छायाएँ
आशंका की
गहरे कराहते गर्भों से
मृत बालक ये कितने जनमे,
बीमार समाजों के घर में!
बीमार समाजों के घर में
जितने भी हल है प्रश्नों के
वे हल, जिनके पूर्व मरे।
उनके प्रेतों के आस - पास
दार्शनिक दुखों की गिद्ध - सभा
आँखों में काले प्रश्न - भरे बैठी गुम - सुम।
शोषण के वीर्य - बीज से अब जनमे दुर्दम
दो सिर के, चार पैर वाले राक्षस - बालक।
विद्रूप सभ्यताओं के लोभी संचालक।
मानव की आत्मा से सहसा कुछ दानव और निकल आए!
मानव मस्तक में से निकले
’ अंधेरे में’ शीर्षक कविता में उनकी कलम से देखिये,कैसी जिन्दगी मकान की तरह एक दिन भरभरा कर गिर जाता है।
अंधेरे में
ज़िंदगी के ...
कमरों में अँधेरे
लगाता है चक्कर
कोई एक लगातार,
आवाज़ पैरों की देती है सुनाई
बार - बार ... बार - बार,
वह नहीं दीखता... नहीं ही दीखता,
किंतु, वह रहा घूम
तिलस्मी खोह में गिरफ़्तार कोई एक,
भीत - पार आती हुई पास से,
गहन रहस्यमय अंधकार ध्वनि - सा
अस्तित्व जनाता
अनिवार कोई एक,
और मेरे हृदय की धक्धक
पूछती है,वह कौन
सुनाई जो देता,पर नहीं देता दिखाई!
इतने में अकस्मात् गिरते हैं भीतर से
फूले हुए पलिस्तर,
खिरती है चूने - भरी रेत
खिसकती हैं पपड़ियाँ इस तरह,
ख़ुद ब ख़ुद
कोई बड़ा चेहरा बन जाता है,
स्वयमपि
मुख बन जाता है दिवाल पर,
नुकीली नाक और
भव्य ललाट,
दृढ़ हनु,
कोई अनजानी अन - पहचानी आकृति।
कौन वह दिखाई जो देता, पर
नहीं जाना जाता है!
कौन मनु ?
बाहर शहर के, पहाड़ी के उस पार, तालाब ...
अँधेरा सब ओर,
निस्तब्ध जल,
पर, भीतर से उभरती है सहसा
सलिल के तम - श्याम शीशे में कोई श्वेत आकृति
कुहरीला कोई बड़ा चेहरा फैल जाता है
और मुस्काता है,
पहचान बताता है,
किंतु, मैं हतप्रभ।
गजानन माधव मुक्तिबोध राजनांदगांव में प्रोफेसरी की जिन्दगी जीते हुए कलजयी रचना की जिसमें एक ’ ब्रम्ह्राराक्षस’ है। इसकी कुछ लाईनें प्रस्तुत है :-
पथ भूलकर जब चाँदनी
की किरन टकरा
कहीं दीवार पर,
तब ब्रह्मराक्षस समझता है
वंदना की चाँदनी ने
ज्ञान - गुरु माना उसे।
(2)
पिस गया वह भीतरी
औ बाहरी दो कठिन पाटों बीच
ऐसी ट्रैजिडी है नीच!!
बावड़ी में वह स्वय
बावड़ी में वह स्वयं
पागल प्रतीकों में निरंतर कह रहा
वह कोठरी में किस तरह
अपना गणित करता रहा
औ, मर गया ...
वह सघन झाड़ी के कँटीले
तम - विवर में
मरे पक्षी - सा
विदा ही हो गया
वह ज्योति अनजानी सदा को सो गई
यह क्यों हुआ!
क्यों यह हुआ!!
मैं ब्रह्मराक्षस का सजल - उर शिष्य
होना चाहता
जिससे कि उसका वह अधूरा कार्य,
उसकी वेदना का स्रोत
संगत, पूर्ण निष्कर्षों तलक
पहुँचा सकूं
सुरेश सर्वेद
एकता चौंक, गली नं. - 5
राजनांदगांव (छत्तीसगढ़)
मोबाईल : 9424111060
मेल : vicharvithi@gmail.com
web : vithivichar.com
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