महेश कुमार केशरी
कमबख्त कुछ भी तो नहीं बदला है सारी चीज़ें ज्यों की त्यों अपनी जगह पर
जमा हैं लगता है जैसे कैलेंड़र को उठाकर एक आले से दूसरे आले पर रख
दिया गया हो ! रौशनी, में क्या बदला है । सब कुछ तो वैसा ही है । अलबत्ता
बालों के बीच से कुछ सफेदी झाँकने लगी है । लेकिन वो पहले की तरह ही
खुबसूरत है। नख से शिख तक । गोरा रंग, लंबी नाक, कत्थई आँखें ईश्वर ने जैसे
उसे बहुत ही मेहनत से बनाया है।
- अरे तुम --- कैसे हो, बहुत दिनों के बाद ।
रमेश बस मुस्कुरा कर रह भर जाता है ।
उसके साथ एक चार पाँच . साल का बच्चा भी है। चेहरा कुछ . कुछ रौशनी से ही
मिलता जुलता है । ये शायद दूसरा बच्चा है । क्योंकि जहाँ तक रमेश को उससे
मिले कुछ बीस - बाईस एक साल तो हो ही गये होंगे।
- ये दूसरा वाला है । मेरा छोटा बेटा । उसने तस्दीक की
- कितने साल का है ।
- इस साल पाँच साल का हो जायेगा ।
कुछ देर उनके बीच चुप्पी के कतरे तैरते रहते हैं । समय का हर एक सेकेंड़
जैसे किसी राक्षस की तरह रमेश को अपने जबड़े में खींच लेने को तैयार है ।
लेकिन, ये भारी पल रौशनी को भी उसके सीने पर किसी पत्थर की मानिंद लगतें
हैं । शायद वे दोनों ही इस स्थिति के लिये तैयार नहीं हैं । कभी - कभी
हमारे जीवन में हम ऐसे पलों को भी महसूस करतें हैं । जिसमें हम ईश्वर से
ये कामना करते हैं कि ये पल हमारी जिंदगी से अगर निकाल दिये जायें तो हम
ईश्वर के आजीवण ऋणी रहेंगें।
तभी रौशनी ने बच्चे को संबोधित किया - अर्णव ---- अर्णव अपनी माँ की तरह ही समझदार है । झुककर रमेश के पैरों को छूता है । रमेश बच्चे को पुचकारता है - अरे, नहीं बेटा ! ये सब नहीं । बड़ा प्यारा नाम है अर्णव , और उतने ही प्यारे हो तुम । खूब पढ़ो, खूब तरक्की करो तुम । भगवान् से यही प्रार्थना है मेरी ।
रमेश, रौशनी को आँखें कड़ी करके देखता है . तुम्हें तो पता ही है । मुझे शुरू से ही ये सब पसंद नहीं है।
रौशनी बस मुस्कुरा कर रह भर जाती है ।
तभी रौशनी ने बच्चे को संबोधित किया - अर्णव ---- अर्णव अपनी माँ की तरह ही समझदार है । झुककर रमेश के पैरों को छूता है । रमेश बच्चे को पुचकारता है - अरे, नहीं बेटा ! ये सब नहीं । बड़ा प्यारा नाम है अर्णव , और उतने ही प्यारे हो तुम । खूब पढ़ो, खूब तरक्की करो तुम । भगवान् से यही प्रार्थना है मेरी ।
रमेश, रौशनी को आँखें कड़ी करके देखता है . तुम्हें तो पता ही है । मुझे शुरू से ही ये सब पसंद नहीं है।
रौशनी बस मुस्कुरा कर रह भर जाती है ।
रमेश खिलौने की दूकान से एक चॉकलेट खरीद कर अर्णव की ओर बढ़ा देता है। वो
माँ की तरफ देख रहा है । मानों उसे माँ से इजाजत चाहिये । रौशनी
मुस्कुराते हुए , अपनी मौन स्वीकृति दे देती है । अर्णव चॉकलेट लेकर
खाने लगता है ।
-
और क्या हो रहा है। अभी दिल्ली में ही हो या । जैसे रौशनी पूछना चाह रही
हो । अभी भी सिविल सर्विसेज की तैयारी में ही लगे हो । रमेश ----।
सकुचाते
हुए रमेश जबाब देता है - नहीं अब मैं मास्को, में रहता हूँ । यहाँ पर
जेएनयू के रुसी भाषा विभाग के सालाना वार्षिकोत्सव में भाग लेने आया था ।
हर साल आता हूँ । यहाँ के प्रोफेसर , सब मुझे जानते हैं । वहाँ मैं रुसी
भाषा और साहित्य पढ़ाता हूँ । कुछ साल प्राग में भी रहा । वहाँ बच्चों
को रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता था ।
रमेश अपने शब्दों के सिरे को एक बार फिर से, जोड़ता है । मैं अब भारतीय
नहीं हूँ । मैनें रूसी नागरिकता ले ली है । अब रूस में ही मेरा घर है ।
-
ओह ! इसलिये तुम्हारे चेहरे का रंग इतना लाल हो गया है और तुम्हारे बाल
भी तो ललिहाँ भूरे दिख रहें हैं , लेकिन तुम तब भी खुबसूरत थे और आज भी
हो।
रमेश के दिल में एक बार आया कि वो कह दे कि तब तुम्हें कहाँ मेरी
खुबसूरती दिखी थी । लेकिन इन सब बातों का अब कोई मतलब भी नहीं है ।
- शादी हो गई या ऐसे ही हो --- वो शायद ऐसे ही पूछती है। लेकिन उसके लिए इसका उत्तर देना आसान नहीं होता ।
- शादी हो गई या ऐसे ही हो --- वो शायद ऐसे ही पूछती है। लेकिन उसके लिए इसका उत्तर देना आसान नहीं होता ।
-
हाँ, रूस में एक सर्लिन कुरसोवा नाम की लड़की है । मैनें उससे शादी कर ली
है । वो भी रूसी भाषा और साहित्य मॉस्को यूनिवर्सिटी में पढ़ाती है । फिर
वो आगे जोड़ता है - तुमसे कुछ दस . एक साल छोटी ही होगी । दरअसल वो मेरी
छात्रा थी, मैं उसे रूसी भाषा पढ़ता था ।
वो रौशनी को जलाने के लिया कहता है - दरअसल वो मेरे रूसी भाषा के ज्ञान और
व्याकरण की शुद्धि के कारण ही मुझसे प्रभावित हुई थी । मैनें कई देशों
की यात्राएँ की कुछ साल फ्राँस में भी रहा । कुछ साल जर्मनी और अमेरिका के
विश्वविधालयों में भी प्रोफेसर रहा । वहाँ मैं रूसी भाषा और साहित्य पढ़ाता
रहा । वो अतीत के किसी पतझड़ वाले साल के पत्ते बटोरने लगता है । जिसके
पत्तों में उसके आँखों की नमी जज्ब है ।
रौशनी के शब्दों में तो उसने यही कहा था - प्रैक्टिकल बनो यार,
प्रैक्टिकल ! इतना मन मसोसने की जरूरत नहीं है । तुम्हें मुझसे भी अच्छी
लड़की मिल जायेगी ।
अगर घर वालों का दबाव ना होता तो मैं तुमसे ही शादी करती, लेकिन मम्मी
.पापा का दबाव है । मैं अपनी मर्जी से कुछ नहीं कर रही हूँ । तुम्हें तो
पता है । हम मिडिल क्लास लोग हैं । आज भले ही मेरा यू पी एस सी क्रैक हो
गया है लेकिन अपने मम्मी पापा को मैं ना नहीं बोल सकती । किसी ने सही कहा
है, वक्त इंसान और आदमी के हालात बदलते रहतें हैं ।
रमेश के मन में उस वक्त ये ख्याल आया था कि वो कह दे कि ना तो सिर्फ
तुम मुझे ही कह सकती हो । तुम्हारे लिये ये आसान भी है लेकिन , तुम ये
क्यों नहीं समझती कि हम एक . दूसरे से प्यार करतें हैं । लेकिन, यहाँ
प्यारे कौन कर रहा था । सही बात है पद और प्रतिष्ठा मिलते ही आदमी अपनी
औकात भूल जाता है । उसको अपने खुद के जैसे साधारण लोग भी बेहद घटिया और
दो कौड़ी के लगने लगते हैं तो क्या रमेश भी रौशनी की नजरों में दो कौड़ी का
आदमी था । नहीं उसे वो पिछले सात . आठ सालों से जानता है उसकी बातों से
कभी उसे ऐसा नहीं लगा कि वो इस तरह से बदल जायेगी कि एक सिरे से उसके और
अपने रिश्ते को खारिज़ कर देगी । कभी . कभी रमेश ये भी सोचता कि बेकार ही
वो रौशनी से मिला । बेकार ही उसने रौशनी को रूम पार्टनर बनाया । अगर रूम
पार्टनर भी बनाया तो एक दूरी बनाकर रखता उससे लेकिन नहीं ऐसा नही हो सका
शुरूआती दिनों से ही वो रौशनी को दिल से चाहने लगा था । वो देवी की तरह
उससे प्रेम करता था । रौशनी, उसके लिये प्रेम की नहीं, श्रद्धा की वस्तु थी
अगर वो रौशनी से नहीं मिलता या अगर वो उसकी रूम पार्टनर नहीं होती तो क्या
वो उससे प्यार कर पाता । नहीं ना दिल्ली बहुत बड़ा शहर है । सैकड़ों .
लाखों लड़कियाँ आतीं हैं । इस शहर में । क्या उसे सब लड़कियों से प्रेम
हो जाता । नहीं ना । ये तो संयोग ही था कि उससे रौशनी की मुलाकात हो गई
और वो उसकी रूम पार्टनर बन गई । क्या कोई और लड़की उसकी रूम . पार्टनर
होती तो क्या वो उससे भी प्रेम कर बैठता । नहीं उसे पता नहीं । वो कुछ भी
सोचना नहीं चाहता था । वो इस सवाल को टाल जाना चाह रहा था । उन दिनों उसकी
हालत बिल्कुल पागलों की तरह हो चुकी थी । रौशनी से ब्रेकप के बाद उसने
सिविल सर्विसेज की तैयारी करना ही छोड़ दिया था । उसे रौशनी नाम और सिविल
सेवा की तैयारी से चिढ़ सी हो गई थी । उसका आत्म - विश्वास जाता रहा था ।
उसने मुखर्जी नगर के अपने उस पुराने फ्लैट को भी छोड़ दिया था । अब वो
भाषा और साहित्य को पढ़ने लगा था । अब उसे लुशून , मैक्सिम गोर्की, विक्टर
ह्यूगो को पढ़ना अच्छा लगता था । अब उसे चीनी, रूसी, जापानी भाषा का
साहित्य पढ़ना . लिखना बहुत भाने लगा था । इस घटना के बाद उसने जेएनयू के
भाषा विभाग में दाखिला ले लिया था । वहीं उसने कई विदेशी भाषाओं का अध्ययन
किया । उनके साहित्य के अध्ययन में जुट गया । बाद में उसे मास्को
यूनिवर्सिटी में बतौर प्राध्यापक की नौकरी मिल गई थी । बहुत साल रूस में
रहा । वहाँ अध्यापन का कार्य किया । प्राग से जब रूसी भाषा पढ़ाने का उसको
सामने से मौका मिला तो वो टाल ना सका।
वो कभी - कभी अखबार के कतरनों के कोनों अंतरों में ये खबर पढ़ता कि अमुक
लड़के ने अमुक लड़की के चेहरे पर तेजाब से हमला कर दिया या किसी लड़के ने
लड़की को चाकू मार दिया और पुलिस ने लड़के को गिरफ्तार कर लिया है । कैसे
करतें होंगें ऐसा लोग। खासकर तब जब वे एक - दूसरे से प्रेम करते हों क्या
उनकी भी ऐसी ही मनोदशा होती होगी । उस समय उस प्रेमी को, वैसा ही लगता होगा
। जैसा अभी रमेश को लग रहा है या कि जैसी उसकी मनोदशा अभी है । अखबार में
कभी - कभी ये भी छपा होता कि लड़के ऐसा एकतरफा प्रेम में पड़कर करतें हैं
और कभी - कभी वो बलात्कार की घटनाओं के बारे मैं भी पढ़ता तो उसको लगता
कि क्या ऐसी मनोदशा में ही लोग बलात्कार भी करतें हैं । क्या उसकी मनोदशा
भी एक एसिड़ अटैकर की या एक बलात्कारी की हो गई है । क्या वो इतना क्रूर हो
गया है कि वो रौशनी के ऊपर तेजाब फेंक देगा या उसके साथ बलात्कार करेगा ।
क्या वो इतना कुँठित हो गया है लेकिन, उसे वो इतनी आसानी से भूल भी तो नहीं
पायेगा ।
प्रेम को पगने में समय लगता है । आठ साल, अट्ठारह साल --- या फिर एक सदी,
या कई - कई सदी । लेकिन ये तो बिछोह था । किसी जन्म में अनकिये या किये
का प्रतिदान, लेकिन इस किये - अनकिये का दु:ख अकेले वो ही क्यों भोगे ।
जबकि प्रेम उसने अकेले थोड़े ही किया था । जो अकेले ही प्रतिदान पाता।
रौशनी को भी तो प्रतिदान मिलना चाहिए ।
प्रेम के तो नायाब उदाहरण इतिहास में भरे पड़े हैं । उसका प्रेम उदात्त
प्रेम है । जैसे कृष्ण जी और राधा जी ने किया था । रोमियो और जूलियट ने ।
हीर और राँझा ने किया था । प्रेम में केवल लेना नहीं होता, देना भी होता है
। धरती पर ऐसे कई उदाहरण हमें मिलते हैं जो सशरीर कभी मिले ही नहीं लेकिन,
आज भी जमाना उनकी मिसाल देता है।
वो जितना प्रेम के बारे में सोचता है । उतना ही उलझता जाता है । लगता है
दिमाग के तंतु फट जायेंगें । लेकिन वो, कभी - कभी लचीला भी हो जाता है । वो
मठो - मंदिरों के बारे में सोचता है कि वो कहीं काशी, मथुरा, हिमालय या
बनारस चला जाये । मोक्ष की नगरी, जहाँ चितायें, जलती हों । जहाँ जीवण का
सार पता चले । वो अपनी चिता खुद जलती देखे । समझे इस निस्सार दुनिया को
जलते हुए वो लोगों के सच - झूठ को समझे । आखिर ईश्वर से प्रेम भी तो प्रेम
ही है । अलमस्त हो जाये । पीरों की तरह, भूल जाये घर - द्वारा माँ - बाप
की चिंता । जोगियों या साधुओं की तरह जाति - पाती । ऊँच - नीच, धर्म -
मजहब, से ऊपर उठ जाये । लोग कहतें हैं । ये जो ए हट्टे - कट्ठे योगी हैं ।
महात्मा हैं । ये लोग अकर्मण्य लोग हैं । काम से भागने वाले, फिर काम कौन
करता है । महलों के धन्ना सेठ या राजनेता । सारी जिंदगी वे दूसरों के श्रम
पर पलतें हैं । लेकिन जिनके श्रम पर पलते हैं । उनको ही हेकड़ी दिखाते हैं ।
सुबह से शाम तक इनका कॉलर कभी गँदा नहीं होता लेकिन ये मालपुये और छप्पन
भोग खाते हैं । श्रम करके खाने वाला दिहाड़ी मजदूर अगले दिन क्या खायेगा ।
इस बाबत वो सोचता है, ऐसे देखा जाये तो ये जो अलमस्त जोगी हैं । इन्होंने
जीवण के सार को जान लिया है । तभी तो वे खाना बदोश हैं बिल्कुल नदी की तरह !
नदी भी तो प्रेम की तरह है उन्मुत - उश्रृंखल । नयी लयात्मकता के साथ आगे
रास्ता तलाशती हुई । ऊँचे - पहाड़, पठार - मैदानी - भूभाग सबको फलाँगती
हुई ! कोई सीमा - रेखा नहीं ना कोई - देश ना कोई धर्म ना कोई जाति ना
इंसानों की तरह नफरती सोच ना लोभ ना लालच !
प्रेम भी नदी की तरह ही होता है । बहता जाता है । नदी की तरह स्वायत्त !
देश, नागरिकता, धर्म, मजहब, से दूर । सरहदों से परे । इसे बाँधा नहीं जा
सकता । सीमाओं में । प्रेम संगीत की तरह होता है । आप किसी दूसरे देश में
चले गयें हैं । आपको कोई संगीत सुनाई पड़ता है । और आपकी ऊँगलियों और पैरों
में जुँबिश होने लगती है । अपनी कुँठा के कारण ही आदमी देश, समाज, जाति -
पाति, ऊँच - नीच, छोटे - बड़े, अमीर - गरीब में बँटा हुआ है ।
साधुओं, पीरों को कभी देखा है, चिंतित होते हुए । उन्हें नहीं पता कल क्या
होगा । कल वो क्या खायेंगें। कल उनका ठौर कहाँ होगा लेकिन, चिंता मुक्त
हैं । आज यहाँ रूके, कल वहाँ । ना कोई स्थायित्व ना कोई झमेला । झमेला तो
दुनिया दारी से जुड़े लोगों का है । दिनभर तनाव में बिताते हैं । नमक रोटी
की जुगाड़ा में। जिंदगी भर दौड़ते रहो । लेकिन कहीं शाँति नहीं मिलती । दम
भरने की भी फुरसत नहीं । जैसे जिंदगी की रेस में बेवजह दौड़ रहें हों ।
आखिर, क्या हासिल कर लेंगें । वो जिंदगी के सबसे आखिरी छोर पर । जब वो ये
बात सोचता है कि वो बनारस या काशी या मथुरा चला जाये और अपना दाह -
संस्कार होते देखे तो उसके शरीर में कोई झुरझुरी पैदा नहीं होती । कभी -
कभी उसको लगता है कि वो कोई दार्शनिक हो गया है अरस्तू, सुकारात की तरह ।
आखिर ऐसी बहकी - बहकी बातें भला कौन करता है । कोई है जो उसके तर्कों को
काटकर दिखाये । वो झूठ भी तो नहीं कह रहा । इतनी माथा - पच्ची के बाद भी वो
किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच पाता । ये जिंदगी भी कितनी ऊहा - पोह से
भरी पड़ी है !
लेकिन बलिदान आखिर रमेश ही क्यों दे । लालच क्या रौशनी के मन में नहीं आ
गया था । वो पद - प्रतिष्ठा और रूपये - पैसों को ही बहुत ज्यादा अहमियत
नहीं देने लगी थी । क्या हुआ अगर वो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाया ।
बहुत सारे लोग हैं । जो यू.पी.एस.सी. क्रैक नहीं कर पाते तो क्या उनके साथ
किया हुआ लोगों का कमिटमेंट लोगों को भूल जाना चाहिए । और पैसा आदमी के
जीवन में आता जाता रहता है लेकिन प्यार नहीं । हरीश ने बेशक यू.पी.एस. सी.
क्रैक कर लिया हो । लेकिन प्यार तुम उससे नहीं करती । ये तुम भी जानती हो ।
और तुमने तो सिविल सर्विसेज की परीक्षा पास कर ली है । तुम आज की नारी हो ।
आधुनिक काल की । तुम पर कोई अपने विचार थोप नहीं सकता । तुम स्वायत्त हो ।
कुछ दिनों में तुम्हारी ज्वाइनिंग किसी बड़े शहर में हो जायेगी । तुम
प्रशासनिक अमले की प्रमुख होगी । तब भी प्रशासन को चलाने के लिये जिले को
संभालने के लिये तुम अपने - मम्मी पापा से सहयोग माँगोगी । नहीं ना ... !
उस समय तुम्हें अपने बुद्धि और विवेक का उपयोग करना होगा । क्या कोई
प्रशासनिक अधिकारी कोई फैसला लेते समय अपने घरवालों से पूछता है या खुद
फैसले लेता है ....।
प्रशासन संभालना और शादी - ब्याह दोनों अलग - अलग मामले हैं । प्रशासनिक
व्यवस्था संभालते हुए हम निजी नहीं होते लेकिन शादी ब्याह नितांत पारिवारिक
और निजी मामले होते हैं । घर वालों की मर्जी के बगैर मैं कोई फैसला नहीं
कर सकती बावजूद इसके कि हम सात - आठ सालों तक अच्छे दोस्त रहें हैं ।
भविष्य में भी हम अच्छे दोस्त बने रह सकतें हैं ।
लेकिन हम दोस्ती के रिश्ते से बहुत आगे बढ़ चुके हैं । इन सात - आठ सालों
में हम केवल रूम पार्टनर ही नहीं रहें हैं । बल्कि हम दोनों एक - दूसरे के
सुख - दु:ख के साथी भी रहें हैं और हम सिर्फ़ दोस्त ही नहीं हैं। ये बात
तुम्हें भी अच्छी तरह पता है अगर मैं भी यू.पी. एस. सी. क्रैक कर लेता तो
आज की तारीख में हम दोनों शादी कर रहे होते ।
- कर लेते तब ना ... ! रौशनी की आवाज अपेक्षाकृत कुछ ज्यादा ही तेज हो गई थी ।
- तो क्या तुम मुझसे प्यार भी नहीं करतीं ....।
-
बी प्रैक्टिकल यार, डोंट बी फुल । प्यार पहले करती थी लेकिन अब नहीं । लोग
क्या कहेंगें । वैसे भी मुझे अब ट्रेनिंग के लिये जाना होगा । फिर मैं
तुम्हें कहाँ - कहाँ लेकर जाऊँगी । उसके बाद मेरी पोस्टिंग होगी।फिर ... ।
उसी समय रौशनी का फोन बजता है । रौशनी फोन लेती है । फोन उसके पिता ने ही
किया था शायद फोन पर आवाज कुछ स्पष्ट नहीं है । रौशनी कई बार हैलो - हैलो
कहती है लेकिन आवाज फिर भी नहीं आती शायद नेटवर्क खराब था या शायद फोन ही
खराब था रौशनी फोन को स्पीकर पर ले लेती है । एक बूढ़ी आवाज स्पीकर से
कौंधती है - क्या कर रही हो, अब तक तुम वहांँ । यहाँ हरीश के पापा का बार -
बार फोन आ रहा है । उन्हें हाँ कहूँ या ना ।
आखिर के लाईन रमेश की छाती में शूल की तरह पैवस्त हो जाते हैं । उस कँगले
रमेश को साफ मना कर देना शादी के लिये । हाँ मत कह देना । तुम बहुत भावुक
हो, बेटी ... ।
रौशनी बाप की बात पूरी होने से पहले ही फोन काट देती है ।
- चलती हूं मेरी शॉपिंग हो गई । रौशनी की बात से रमेश की तँद्रा टूट जाती है ।
- हाँ, चलो फिर मिलते हैं ।
अचानक से रमेश के दिमाग में हरीश का ख्याल आता है । वो हरीश के बारे में
रौशनी से पूछता है - तुम्हारे पति हरीश नहीं दिख रहा, वो कहाँ है ।
रौशनी के स्वर में उदासी कहीं गहरे तक उतर आती है । पिछले साल कोविड़ में वो नहीं रहे ।
- ओह !
-
तुम ठीक से रहना मॉस्को में भी बहुत से लोग मर रहें हैं । मैनें पति को तो
खो दिया है लेकिन अब एक बहुत अच्छे दोस्त को नहीं खोना चाहती । अपना
ख्याल रखना । दरअसल मेरी तकदीर ही खराब है । वो रोने लगी थी । '' मैं
तुम्हारी अपराधिनी हूँ । मुझे मेरे किये की सजा मिल रही है ''
रमेश आज अपने आप को बहुत छोटा महसूस कर रहा था । वो सोच रहा था बेकार ही
वो मॉस्को गया।बेकार ही रूसी भाषा सीखी । बेकार ही प्रोफेसर बना ।'' तभी
उसे प्रतिदान का ख्याल आया । किसी किये - अनकिये का प्रतिदान वो अकेले
कहाँ भोग रहा था । कभी - कभी मिथक भी सच हो जाते हैं !
महेश कुमार केशरी
मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो ( झारखंड ) पिन 829144
मो. 9031991875
मेघदूत मार्केट फुसरो
बोकारो ( झारखंड ) पिन 829144
मो. 9031991875
परिचय .
जन्म : 6 .11 .1982 बलिया (उ. प्र.)
शिक्षा: 1 विकास में श्रमिक में प्रमाण पत्र (सी.एल. डी.इग्नू से )
2. इतिहास में स्नातक ( इग्नू से )
3. दर्शन शास्त्र में स्नातक ( विनोबा भावे वि. वि.से)
अंतर्राष्ट्रीय प्रकाशन : सेतु आनलाईन पत्रिका ( पिटसबर्ग अमेरिका से प्रकाशित )
राष्ट्रीय
पत्र - पत्रिकाओं में प्रकाशन: वागर्थ, पाखी, कथाक्रम, कथाबिंब, विभोम -
स्वर, परिंदे, गाँव के लोग, हिमप्रस्थ, द्वीप - लहरी, किस्सा पुरवाई,
अभिदेशक, हस्ताक्षर, मुक्तांचल, शब्दिता, संकल्य, मुद्राराक्षस उवाच,
पुष्पगंधा, अंतिम जन, प्राची, हरिगंधा, नेपथ्य, एक नई सुबह, एक और अंतरीप,
दुनिया इन दिनों, रचना उत्सव, उत्तर प्रदेश, स्पर्श, सोच - विचार, व्यंग्य
- यात्रा, समय- सुरभि, अनंत, ककसार, अभिनव प्रयास, सुखनवर, समकालीन
स्पंदन, साहित्य समीर, दस्तक, विश्वगाथा, स्पंदन, अनिश, साहित्य सुषमा,
प्रणाम - पर्यटन, हॉटलाइन, चाणक्य वार्ता, दलित दस्तक, सुगंध, नवनिकष,
कविकुंभ, वीणा, यथावत, हिंदुस्तानी जबान, आलोकपर्व, साहित्य सरस्वती,
युद्धरत आम आदमी,सरस्वती सुमन, संगिनी, समकालीन त्रिवेणी, मधुराक्षर,
प्रेरणा अंशु, पंजाब सौरभ, तेजसए दि अंडरलाईन, शुभ तारिक, मुस्कान एक
एहसास, सुबह की धूप, आत्मदृष्टि, हाशिये की आवाज, परिवर्तन, युवा सृजन,
अक्षर वार्ता, सहचर , युवा दृष्टि, संपर्क भाषा भारती, दृष्टिपात, नव
साहित्य त्रिवेणी, नवकिरण, अरण्य वाणी, अमर उजाला, पंजाब केसरी,
हिंदुस्तान, लोकसत्य, प्रभात खबर, राँची एक्स्प्रेस, दैनिक सवेरा, शुभम
संदेश, लोकमत समाचार, दैनिक जनवाणी, सच बेधड़क, डेली हिंदी मिलाप, डेली
न्यूज़ एक्टिविस्ट, पूर्वांचल प्रहरी, नेशनल एक्स्प्रेस, गिरीराज वीकली,
इंदौर समाचार, युग जागरण, शार्प - रिपोर्टर, प्रखर गूंज साहित्यनामा, कमेरी
दुनिया, आश्वसत के अलावे अन्य पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित ।
चयन . ;1 द्धप्रतिलिपि कथा . प्रतियोगिता 2020 में टॉप 10 में कहानी गिरफ्त का चयन
पच्छिम दिशा का लंबा इंतजार ( कविता संकलन )
जब जँगल नहीं बचेंगे ( कविता संकलन ) मुआवजा ( कहानी संकलन )
3. संपादन: प्रभुदयाल बंजारे के कविता संकलन '' उनका जुर्म ''
पुरस्कार , सम्मान : नव साहित्य त्रिवेणी के द्वारा अंर्तराष्ट्रीय हिंदी दिवस सम्मान 2021
संप्रति : स्वतंत्र लेखन एवं व्यवसाय
संपर्क. श्री बालाजी स्पोर्ट्स सेंटर, मेघदूत मार्केट फुसरो, बोकारो झारखंड - 829144
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें