शुभ्रा बागची घोषाल
मै रंगती चली गई
कागज पर कागज
शब्दों पर शब्द जुड़ते चले गए
कब कैसे कोरे पन्ने मेरे भरते चले गए
फिर बिन बोले किसी सैलाब का आना
तूफान में किसी कश्ती का डगमगाना
सारे पन्नों का पल में धुल जाना
हर अक्षर हर शब्द का
फिर स्याही में बदल जाना
जैसे किसी पवित्र माला की डोर टूट कर
सारे मनको का इत उत छितर जाना
हर पूजा हर आस्था हर विश्वास का
एक पल में खत्म हो समाहित हो जाना
फिर अनंत प्रतीक्षा में थमता ये जीवन
निस्तब्ध,निभृत,निरीह आज ये मन
पल पल प्रतिपल आस लिये
एक स्वरचित इतिहास लिये
कल्पित कर जीवन को परिहास लिये
हर निशा की गहन निस्तब्धता में
आस का दीपक साथ लिये
होगी एक दिन फिर मुलाकात तुमसे
तब तक के लिये ये प्रश्न अधुरा
अधरों में मेरे रहने दो
मेरे सारे शब्दों को
स्याही बन कर बह जाने दो
बह जाने दो
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें