कृष्णकांत बडोनी
ये शहर भी मुस्करायेगा कभी।
फिर वही पहचान पायेगा कभी।।
दूर सबसे हो गया है आज जो,
लौट अपने घर को आयेगा कभी।
जिन दरख़्तों से जमीं हम छीनते,
अपना आंगन उनसे था महका कभी।
हम तमाशा ज़िन्दगी को मानते,
खेल इसका खत्म तो होगा कभी।
रूप की रंगत नहीं रहती सदा,
उग रहा सूरज यही ढलता कभी।
कामयाबी कैद में उसके रहे,
राह मंजिल की नहीं भूला कभी।
मत समझ कमजोर इतना भी उसे ,
हार कृष्णा उससे जायेगा कभी।
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