इस अंक के रचनाकार

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शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

जयप्रकाश कर्दम कृत्य 'छप्पर' उपन्यास में दलित चेतना

 विकास सूर्यकांत वाघमारे
 
       वर्तमान समय में साहित्य के क्षेत्र में अनेक चर्चाएँ हो रही है। जिसमें दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श, नारी विमर्श, किन्नर विमर्श आदि प्रमुख है। वैसे देखा जाए तो दलित साहित्य यह धारा स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद 1960 से अधिक प्रखरता के साथ सामने आयी। इस समय भारत स्वतंत्र हो चुका था। भारतीय समाज और लोगों के मन में ऐसी आशाएँ पल्लवित हो गई थी कि हमारे सभी प्रश्न हल हो जाएंगे। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। समय के साथ अनेक समस्याएं बढ़ती गई। बेकारी, निर्धनता, बढ़ती आबादी, जातिगत झगड़े, भ्रष्टाचार, जातिवादी राजनीति आदि परिस्थिति के कारण लोगों  का स्वतंत्रता से विश्वास उठ गया और शुरू हुआ अपने अधिकारों एंव प्रश्नो के लिए जन आंदोलन।
   इस समय शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार हो गया था। शिक्षा का महत्व समाज के हर वर्ग तक जा चुका था। शिक्षा के कारण गांव से बाहर रहने वाले दलित तथा आदिवासी वर्ग के लोग भी जागृत हो चुके थे। अपने हक एवं अधिकारों को वह भली-भाँति समझ गए थे। एक मनुष्य एक मूल्य यह विचार सर्वत्र फैल चुका था, पर सामाजिक परिस्थिति नहीं बदली थी। समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन तो हुआ लेकिन विषम व्यवस्था और उसके विरुद्ध असंतोष के कारण लोगों के मन में दुख और विद्रोह भी सुलग उठा। समाज की इसी स्थिति का चित्रण इस समय के कवियों तथा लेखकों ने अपने साहित्य के माध्यम से किया। इस समय समाज के विविध वर्गो में नए नए लेखकों का उदय हुआ। इन लेखकों ने अपनी समस्याएं, अपने प्रश्न, अपनी अपेक्षाएं अपने साहित्य के माध्यम से अभिव्यक्त की। जिसमें जयप्रकाश कर्दम ऐसा ही एक नाम है। इन्होंने अपने साहित्य के केंद्र में आम आदमी को रखा है। वह खुद दलित परिवार के होने के कारण उन्हें खुद वर्णवादी व्यवस्था का शिकार होना पड़ा है। उन्होंने जो भोगा वही अपने रचनाओं में चित्रित किया। उनका साहित्य सिर्फ दलित जीवन को ही अभिव्यक्त नहीं करता तो लोगों में चेतना निर्माण करने का काम भी करता है। दलित चेतना को समझने से पहले हमें दलित शब्द को समझना जरूरी है। दलित शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के 'दल' धातु से हुई है। जिसका अर्थ खंडित होना, द्विधा होना होता है। भारतीय प्राचीन साहित्य में शुद्र, दास, चांड़ाल, अस्पृश्य शब्दों का प्रयोग मिलता है जो दलित शब्द का प्राचीन रूप है। अतः दलित शब्द का शब्दगत अर्थ है- रौंदा हुआ, दबाया हुआ, कुचला हुआ आदि। अंततः यह कहा जा सकता है कि दलित साहित्य उस समाज या वर्ग का साहित्य है जो हमेशा से कुचला गया है, दबाया गया है।वर्तमान समय में दलित शब्द को लेकर अनेक वाद विवाद है। लेकिन हमें यह ध्यान रखना आवश्यक है कि यह शब्द किसी जाति या उपजाति से संबंध में न होकर सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक अधिकारों की प्राप्ति हेतु अंबेडकरवादी एवं अन्य परिवर्तनकामी  विचारधारात्मक वर्गों के संघर्ष का प्रतीक है। ओमप्रकाश वाल्मीकि के शब्दों में अगर कहना हो तो- "दलित शब्द हमारे लिए एक बहुत ही प्रेरणादायक शब्द है। हम इसे दल के साथ जोड़ते हैं, जो सामूहिक तौर पर कार्य करता है जीवन को सामाजिक तरीके से जीता है और समाज से अलगाव दूर करता है। इसी के आधार पर हमने दलित शब्द को स्वीकार किया है और दलित शब्द एक आंदोलन का प्रतीक है हमारे लिए और ऐसा पहली बार हुआ है इतिहास  में कि दलितों ने अपने लिए एक अपना शब्द चुना है। अभी तक वे अपने लिए दूसरे के दिए शब्दों को स्वीकार किया है यहां तक कि अपने बच्चों के नाम भी दूसरे रखते थे अपने नाम रखने के लिए भी वह स्वतंत्र नहीं थे। लेकिन यह पहली बार हुआ है कि उन्होंने अपने लिए एक शब्द चुना है जो उनके लिए एक संघर्ष का प्रतीक है।"1
   दलित चेतना का संबंध दलितो कि जागरूकता से है। इसके केंद्र में आत्मसम्मान, गरिमा, अपने मौलिक अधिकारों एवं हक की प्राप्ति है जो ज्योतिबा फुले और डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों पर आधारित है। हमारे समाज में विषमता, जातीयता, अन्याय एवं अत्याचार जैसे शोषण के अनेक प्रकारों को नष्ट कर समाज में समता, बंधुता और स्वतंत्रता की स्थापना करना दलित चेतना का मूल उद्देश्य है। इसी उद्देश्य को लेकर जयप्रकाश कर्दम ने अपना साहित्य लिखा।
   कर्दम द्वारा लिखित 'छप्पर' उपन्यास दलित चेतना के संदर्भ में लिखी गई एक सशक्त कृति है। उपन्यास का जो शीर्षक है वह बहुत महत्वपूर्ण है। कई संकेत हमें यह दे जाता है। मिट्टी के घर के ऊपर बाँस, लकड़ी, फूस आदि घर पर डालकर छप्पर बनाया जाता है जो घर में रहने वालों की नैसर्गिक आपदाओ सें सुरक्षा करता है। लेकिन 'छप्पर' शीर्षक उन लोगों की व्यथा को संबोधित करता है जो अपने अधिकार खो बैठे हैं। जो अपने घर से बेघर है। जो शोषण का शिकार है। लेखक इस प्रकार का छप्पर बनाना चाहते हैं जो शोषित और पीड़ित लोगों को अन्याय एवं अत्याचारो से बचाकर उन्हें उनके अधिकार प्रदान करें। समाज में समता प्रस्तापित करें।
   उपन्यास में उत्तर प्रदेश के मातापुर इस छोटे से गांव का चित्रण है। यह गांव केवल उत्तर प्रदेश का ही गांव नहीं है तो भारतीय गावों का प्रतिनिधित्व करता गांव है। भारत देहातों में बटा हुआ देश है। भारत स्वतंत्र होकर आज कई साल बीत गए लेकिन आज गांव की समाज रचना में परिवर्तन नहीं हुआ। वहां की समस्याएं आज भी ज्यों की त्यों दिखाई देती है। शहरों में कहीं अधिक परिवर्तन अवश्य हुआ है। गांवों में अपेक्षाकृत बहुत कम परिवर्तन दिखाई देता है।  जयप्रकाश कर्दम के साहित्य में प्रमुख रूप से दलित समाज रहा है। उन्होंने सहानुभूति नहीं तो स्वानुभूति के आधार पर साहित्य निर्माण करके लोगों में चेतना निर्माण करने का काम किया है। प्रस्तुत उपन्यास में लेखक ने दलित समाज की सभी संवेदनाओं को छुआ है।
   आज भी गावों में दलित समाज में अनेक समस्याएं निर्माण है। फिर चाहे वह शिक्षा संबंधी हो, अंधविश्वास संबंधी हो, भेदभाव या स्त्री अत्याचार संबंधी। इन सभी समस्याओं को लेखक ने उपन्यास में चित्रित किया है।
   चंदन उपन्यास का प्रमुख पात्र है जो गांव में रहता है। चंदन के माध्यम से लेखक ने दलित समाज का यथार्थ चित्रण किया है। उपन्यास की घटनाएं हमें कहीं पर भी काल्पनिक नहीं दिखाई देती। बल्कि वह मन को सोचने के लिए मजबूर कर देती है। वर्तमान समय में अगर हम गांव में जाकर देखें तो दिखाई देता है कि कितने दलित परिवार के बच्चे पढ़-लिख रहे हैं। गांव में अगर दस घर हो तो एकाध घर का बच्चा ही उच्च शिक्षा में आता है। ऐसा क्यों...?  इसका कारण है उन परिवारों की आर्थिक स्थिति। इन परिवारों की आर्थिक स्थिति इतनी मजबूत नहीं होती कि वह अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दे सके। दलित परिवार के मां-बाप भी कहते हैं अब बेटा बड़ा हो गया है। कुछ कमा सकता है। कमाएगा तो घर में कुछ ना कुछ आर्थिक मदद हो जाएगी। उसे किसी काम पर लगा दिया जाता है। लेखक इन सब बातों का विरोध करते हैं। जो मां-बाप अपनी परिस्थिति के कारण अपने बच्चों को पढ़ाते नहीं है। अगर इच्छा शक्ति हो तो कुछ भी किया जा सकता है। इस रूप में लेखक ने सुखा को चित्रित किया है। सूखा चमार जाति से है। वह आर्थिक रूप से बहुत कमजोर है। लेकिन वह बाबासाहब को जानता है। शिक्षा के महत्व को उसने पहचाना है। वह खुद भुखा रहकर अपने बेटे चंदन को पढ़ाता है। उसका ब्राह्मणों द्वारा विरोधी होता है। लेकिन सुखा हार नहीं मानता। वह रमिया से कहता है- चुप रह पगली, कोई पेट से बड़ा बनकर आता है। पढ़ लिखकर बड़े बनते हैं सब क्या पता हमारा चंदन भी कल को कलेक्टर या दरोगा बन जाए। अपनी चिंता छोड़ हमें थोड़े दुख उठाने पड़ रहे हैं- तो क्या, दुख के बाद सुख आता है। हमारे दिन भी बहूरेगें कभी न कभी।"2 गांव के ब्राह्मण काला पंडित और ठाकुर हरनाम दोनों सूखा का काफी विरोध करते हैं। पर वह डरता नहीं। चंदन को पढ़ने के लिए शहर भेजता है। इतना विरोध होने के बावजूद अगर कोई व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करता है और उसका उपयोग अपने समाज के लिए करता है तो वह एक चेतना ही है। यह चेतना लेखक वर्तमान में दलित समाज में निर्माण करना चाहते हैं।
   वर्तमान समय में अपने अधिकार पाने हेतु कई प्रकार के आंदोलन लोग निकाल रहे हैं। आज यह आंदोलन उग्र रूप धारण कर रहे हैं। जिसमें मारपीट अधिक होती दिखाई दे रही है। ऐसे आंदोलनों का लेखक विरोध करते हैं। चंदन ने उच्च शिक्षा प्राप्त की है जिस कारण वह बाबासाहेब के विचारों तथा कार्य को समझता है। बाबासाहेब के जीवन से वह काफी प्रभावित है। समाज की व्यथा को वह बदलना चाहता है। जिसके लिए वह अपने आपको समाजकार्य में समर्पित करता है। वह बाबासाहेब को अपनी प्रेरणा मानता है। यही कारण है कि वह हिंसा के माध्यम से समाज परिवर्तन नहीं करना चाहता। इस संदर्भ में वह लोगों को इकट्ठा करके समझाता है- "समाज हमें समानता का दर्जा नहीं देता, वह हमें हमारे मनुष्यत्व के साथ स्वीकार नहीं करता, यह समाज का दोष है। समाज धर्म द्वारा प्रेरित और संचालित है। हमारी सामाजिक स्थिति धार्मिक आदेशों का ही परिणाम है। धर्म ग्रंथ ही हमारे शोषण और अत्याचार की जड़े हैं। इन जड़ों को उखाड़ फेंकने की जरूरत है।"3
   हमारे देश में अनेक धर्म दिखाई देते हैं। यहां लोगों पर धर्म का बोलबाला अधिक दिखाई देता है। धर्म के ठेकेदार यहाँ धर्म के आड़ में कई प्रकार से लोगों का शोषण करते दिखाई देते हैं। आज भी यह लोग ईश्वर का भय दिखाकर आम जनता का आर्थिक रूप से शोषण करते हैं। समाज में ऐसी कई धार्मिक विधियाँ है जिससे लोगों को आर्थिक रूप से लूटा जाता है। जैसे- ईश्वर के नाम पर चंदा माँगना। इन बातों का विरोध लेखक ने प्रस्तुत कृति में किया है।
   उपन्यास में धर्म-ग्रंथ का पालन करने वाले उच्च वर्गीय लोग हैं उनका चंदन विरोध करता है। संतनगर और जे-जे कॉलोनी में सुखा गिरने के कारण यज्ञ का आयोजन करने का निर्णय लिया जाता है। लेकिन चंदन को पता है यज्ञ करने से बारिश नहीं होती। वह यज्ञ का विरोध करता है। इस संदर्भ में चंदन कहता है यदि ईश्वर या भगवान की सत्ता को मानना है आस्तिक और नास्तिक होने का आधार
तो निश्चित रूप से मैं नास्तिक हूं। मैं आत्मा, परमात्मा, ईश्वर या भगवान की सत्ता को स्वीकार नहीं करता। यहां लेखक ने धार्मिक रूढी, परंपरा, अंधश्रद्धाओं का विरोध कर लोगों के मन में जागृति लाने का काम किया है।
   उपन्यास में नारीे शोषण का भी चित्रण हुवा है। ऐसी नारी को यहाँ लेखक ने चित्रित किया है जो हारती नहीं बल्कि संघर्ष करती है। यह रोती नहीं तो आज के नारी को लड़ने के लिए प्रेरित करती है। वह मेहनत मजदूरी करके अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है। उपन्यास में कमला नाम की एक स्त्रि पात्र है जिस पर सामूहिक रूप से बलात्कार किया जाता है। लेकिन कमला इतना सब कुछ होकर भी जीती है। वह अपने ऊपर होने वाले अत्याचार का बदला लेना चाहती है। इसलिए वह अपने बेटे को पढ़ाना चाहती है। इस बात को लेकर उसके सामने कई प्रकार की रुकावटें आती है। बाप का नाम न होने के कारण वह अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाती। इस परिस्थिति को देखकर चंदन कमला से कहता है- "चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है आपको। नाम तो पहचान का एक साधन है बस। यदि मां से ही बच्चे की पहचान हो, तो पिता की जगह मां का नाम लिखा जा सकता है।"4 ऐसी व्यवस्था का लेखकने यहाँ  विरोध किया हैं जो व्यवस्था दायित्वहीनता में पुरुषों को छूट देती है और स्त्रियों के चरित्रों को लेकर कई प्रश्न खड़े कर देती है।
   लेखक ने उपन्यास में सामाजिक परिवर्तन के माध्यम से समतामूलक समाज की स्थापना की है। उपन्यास में 'रजनी' नाम की एक पात्र है जो उच्च वर्ग से है। पर वह डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारों से प्रभावित है। साथ ही चंदन के आंदोलन से उसमें चेतना जागृत होती है और आखिर में वह चंदन के आंदोलन में सम्मिलित होती है।
   डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने जो त्रिसूत्री बताई है- 'शिक्षित बनो, संगठित बनो और संघर्ष करो।' इन त्रिसूत्री के आधार पर कर्दम ने चंदन के माध्यम से दलित चेतना का बहुत बड़ा आंदोलन खड़ा कर दिया है। चंदन अपनी पढ़ाई के साथ-साथ बस्ती में स्कूल भी चलाता है। वह लोगों में स्वाभिमान और जागृति पैदा करता है। उन्हें संगठित कर संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। चंदन का यह जन-आंदोलन सर्वत्र गूंज उठता है। आखिर में दलितों पर अत्याचार करने वाले ठाकुर हरनाम भी बदल जाते हैं। वह भी पश्चाताप की अग्नि में जलकर दलितों के साथ अपनत्व का रिश्ता तैयार करते हैं। इतना जो परिवर्तन आया है वह सिर्फ सुखा और चंदन में निर्माण हुई चेतना के कारण।


संदर्भ-
1. ओमप्रकाश वाल्मीकि, दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, पृ. 3
2. डॉ. जयप्रकाश कर्दम, छप्पर, पृ.11
3. वही, पृ. 45
4. वही, पृ. 57



संक्षिप्त परिचय
waghamarev12@gmail.com
पता- हिंदी विभाग, डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर मराठवाडा विश्वविद्यालय, औरंगाबाद
महाराष्ट्र- 431004
लेखन- विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में शोध आलेख  तथा कहानियाँ प्रकाशित
संप्रति- शोधकार्य में अध्ययनरत
चलभाष- 9518325363, 9075181603

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