अपने
प्रबल आवेग में बहती हुई, किनारे बसे तटों को देखती हुई उनकी हरीतिमा को
अपनी ही उपलब्धि मान उच्च स्वर में अट्टहास कर देती। वह मार्ग के अवरोधों
को युक्तियों से हटाती हुई अपने ही एक किनारे को व्यर्थ मानती हुई, दूसरे
किनारे की तरफ़ बढ़ती गयी। वो नादान भूले बैठी थी कि निःसन्देह किनारा बदल
दिया हो उसने, परन्तु रूप बदल कर दूसरा किनारा, उसकी सीमा दिखाता सा साथ ही
चल रहा था।
बदलती परिस्थितियों के फलस्वरूप वह किनारा, जिसको श्रेष्ठ मान वह मुड़ती जा
रही थी, भी उसकी शोर मचाती लहरों में दम घुटता सा अनुभव करता, ऊब कर उसकी
तरफ़ बाँध बनाने लगा था। बाँध की मजबूती और ऊँचाई का अनुमान नहीं लगा पाने
के फलस्वरूप कुछ समय तो वह अकारण ही उस पर अपनी लहरों से दस्तक देती रही।
अनसुना रह जाने पर उसने छूटे हुए किनारे को वापस पकड़ना चाहा, परन्तु अब उस
किनारे और सरिता की लहरों के बीच रुक्ष पड़े वीरान तट की दूरी आ गयी थी ...
वह तट अपने दामन में पनप आये दलदल और कहीं-कहीं रेत के रूखेपन पर अपना
अस्तित्व बनाने के लिए प्रयासरत था और सरिता कुछ अपने में ही सिमटती हुई
नये किनारे की तलाश में आगे बहने का प्रयास कर रही थी।
तट ने सरिता को देखते हुए एक ठण्डी सी साँस भरी,"उफ़्फ़ ... ये अवहेलना की
बढ़ती दूरियाँ भी उर्वरा को बंजर कर देती हैं और उफ़नती लहरों को शुष्क!"
लखनऊ
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