कंटीली थी , मगर उस रह पे चलना भी ज़रूरी था
औ'र इन पांवों से कांटों का निकलना भी ज़रूरी था
ज़रूरी था कि काली रात के साये सिमट जाते
मगर इसके लिए दीपों का जलना भी ज़रूरी था
गले में कब तलक रखते ज़हर को रोक कर आखिर
गले के ज़हर को इक दिन निगलना भी ज़रूरी था
हमें इंसान से पत्थर बनाया था किसी बुत ने
मगर इक दिन मुहब्बत में पिघलना भी ज़रूरी था
--- शिवकुमार बिलगरामी
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