डाँ. नीता कुमारी
ज़िंदगी तीरगी से निकल ही गई
उम्र दुख के दिनों की ढल ही गई
लाख उनसे रखा दूर खुद को मगर
मैं अदाओं पे उनकी फिसल ही गई
जो छुपाया मुझे माँ ने आँचल में तो
हर मुसीबत मेरे सर की टल ही गई
जब मिली आँच उनकी मुहब्बत की तो
मोम के जैसी नफरत पिघल ही गई
जब मिली रहबरी जिंदगी में तेरी
गिरते.गिरते ये’नीता’ संभल ही गई
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