सेवानिवृत्त होने के बाद से ही मेरा पुत्र बार बार मुझसे अनुरोध कर रहा था
कि अब मैं हैदराबाद में उसके परिवार के साथ रहूं परन्तु अपनी स्वतंत्रता
के बाधित हो जाने के भय से मैं लगातार उसके अनुरोध को भविष्य पर टाल रहा
था। मगर इस बार दीपावली पर्व पर जब वह सपरिवार मेरे साथ पर्व मनाने हेतु एक
सप्ताह की छुट्टी लेकर आया तो मेरे पौत्र ने भी मुझसे जिद की कि मैं उन
लोगों के साथ हैदराबाद में रहूं। मैंने उसके अनुरोध को भी टालने का प्रयास
किया। मगर मेरे व्दारा तुरंत न चल पाने की बात सुनकर वह इतना दुखी हो गया
कि मुझे अपने इन्कार पर दृढ़ रहना कठिन हो गया। मैंने काफी सोच विचार कर एक
माह उन लोगों के साथ हैदराबाद में रहने का निर्णय लिया और उनके साथ
हैदराबाद जाने की हामी भर ली।
संयोग से जिस रेलगाड़ी में उनका आरक्षण था। उसमें एक वरिष्ठ नागरिक की
वर्थ खाली थी, अतः मुझे भी आरक्षित बर्थ मिल गई और हम लोगों की यात्रा आसान
हो गई।
रेलगाड़ी में यात्रा करते समय जब मेरे पौत्र ने अपने फ्लैट अपने मोहल्ले
के विषय में मुझे बताना प्रारंभ किया तो उसकी मां ने हंसते हुए कहा .- ''
अरे पगले! बाबू जी ने ही तो वह फ्लैट हम लोगों को खरीदने की सलाह दी थी और
फिर धन की व्यवस्था भी बाबू जी ने ही कराती थी, तब तुम दो.तीन वर्ष के ही
थे।''
यह सुनकर मेरे पौत्र ने पूछा - '' पहले क्या बाबा भी हमारे साथ ही रहते थे।
-
नहीं। तब बाबू जी सेवा निवृत्त नहीं हुए थे। जब हम लोग पहली बार हैदराबाद
आये थे तो बाबू जी पन्द्रह दिन का अवकाश लेकर तुम्हारे पापा की सहायता के
लिए हमारे साथ आए थे।''
यह सुनकर मेरा पौत्र तो मौन हो गया मगर पन्द्रह वर्ष पूर्व हैदराबाद में गुजारे उन पन्द्रह दिनों की स्मृति पुनः एक बार मेरे मानस पटल पर छा गई।
प्रातः पांच बजे उठ कर चार किलोमीटर टहलने का नियम उन दिनों भी मैंने छोड़ा नहीं था। हैदराबाद के जिस इलाके में हमने घर किराए पर लिया था, वहां सड़कें काफी चौड़ी और मकान प्रायः पांच - छह मंजिल के थे। वहां पर हमारे शहर की तरह लोग सड़क का अतिक्रमण नहीं करते थे, मगर अपने भवन की सीमा के आगे एक - डेढ़ फुट जगह में क्यारी नुमा निर्माण कर फूल के पौधे अवश्य लगा लेते थे। इस प्रकार हर घर के आगे सुंदर पुष्पों से सज्जित पेड़ - पौधे लगे होते थे।
उस शहर की दूसरी विशेषताए जिसने मुझे प्रभावित किया था, वह थी हर घर के आगे सुंदर रंगोली। प्रातः ही गृह - स्वामिनियां अपने द्वार के आगे की थोड़ी सड़क , फुटपाथ को धोकर द्वार के ठीक सामने सुंदर रंगोली बनाती थीं। हर घर के सामने एक अलग बनावट की रंगोली, एक से एक सुंदर रंगोली। पता नहीं, यह रंगोली गृह स्वामिनी द्वारा समृद्धि की देवी लक्ष्मी के आह्वान हेतु बनाई जाती है, अतिथि के स्वागत हेतु बनाई जाती है या गृह की शोभा हेतु बनाई जाती है । मगर हर रोज हर घर के सामने रंगोली की बनावट बदली हुई होती थी। नित्य ही नई नई रंगोली बनाने में महिलाओं को अधिक समय भी नहीं लगता था। ऐसा लगता था कि वे सब भांति भांति की रंगोली बनाने में सिद्धहस्त हैं।
मैंने जब हर घर के सामने फूलों की उपलब्धता देखी तो एक पालिथीन की थैली लेकर टहलने के लिए जाने लगा। रास्ते में मैं अपनी पसंद के फूल तोड़ कर उस थैली में रख लेता और स्नान करने के बाद भगवान को वे पुष्प अर्पित कर देता। वहां पर कई प्रकार के गुड़हलए कनेर, चांदनी, बेला आदि के फूल देख कर मुझे बहुत खुशी होती और मैं हर रोज नए किस्म के फूल चुन कर लाता।
यह सुनकर मेरा पौत्र तो मौन हो गया मगर पन्द्रह वर्ष पूर्व हैदराबाद में गुजारे उन पन्द्रह दिनों की स्मृति पुनः एक बार मेरे मानस पटल पर छा गई।
प्रातः पांच बजे उठ कर चार किलोमीटर टहलने का नियम उन दिनों भी मैंने छोड़ा नहीं था। हैदराबाद के जिस इलाके में हमने घर किराए पर लिया था, वहां सड़कें काफी चौड़ी और मकान प्रायः पांच - छह मंजिल के थे। वहां पर हमारे शहर की तरह लोग सड़क का अतिक्रमण नहीं करते थे, मगर अपने भवन की सीमा के आगे एक - डेढ़ फुट जगह में क्यारी नुमा निर्माण कर फूल के पौधे अवश्य लगा लेते थे। इस प्रकार हर घर के आगे सुंदर पुष्पों से सज्जित पेड़ - पौधे लगे होते थे।
उस शहर की दूसरी विशेषताए जिसने मुझे प्रभावित किया था, वह थी हर घर के आगे सुंदर रंगोली। प्रातः ही गृह - स्वामिनियां अपने द्वार के आगे की थोड़ी सड़क , फुटपाथ को धोकर द्वार के ठीक सामने सुंदर रंगोली बनाती थीं। हर घर के सामने एक अलग बनावट की रंगोली, एक से एक सुंदर रंगोली। पता नहीं, यह रंगोली गृह स्वामिनी द्वारा समृद्धि की देवी लक्ष्मी के आह्वान हेतु बनाई जाती है, अतिथि के स्वागत हेतु बनाई जाती है या गृह की शोभा हेतु बनाई जाती है । मगर हर रोज हर घर के सामने रंगोली की बनावट बदली हुई होती थी। नित्य ही नई नई रंगोली बनाने में महिलाओं को अधिक समय भी नहीं लगता था। ऐसा लगता था कि वे सब भांति भांति की रंगोली बनाने में सिद्धहस्त हैं।
मैंने जब हर घर के सामने फूलों की उपलब्धता देखी तो एक पालिथीन की थैली लेकर टहलने के लिए जाने लगा। रास्ते में मैं अपनी पसंद के फूल तोड़ कर उस थैली में रख लेता और स्नान करने के बाद भगवान को वे पुष्प अर्पित कर देता। वहां पर कई प्रकार के गुड़हलए कनेर, चांदनी, बेला आदि के फूल देख कर मुझे बहुत खुशी होती और मैं हर रोज नए किस्म के फूल चुन कर लाता।
एक दिन मैं श्वेत रंग के एक अति सुन्दर सुगंधित पुष्प को तोड़ रहा था ,
तभी एक वृद्ध घर के द्वार पर आया। उसे सामने देख कर मैंने झिझकते हुए एक
फूल तोड़ा और आगे बढ़ गया। मुझे जाता देख उसने तेलगु भाषा में कुछ कहा।
चूंकि मुझे तेलगु भाषा का ज्ञान नहीं है, अतः मैंने अनुमान लगाया कि यह
वृद्ध मुझे फूल तोड़ने के लिए डांट रहा है। अतः मैंने उससे हिंदी में क्षमा
मांगी और वहां से चल पड़ा। मगर वह और जोर से कुछ बोला तो मैंने उसके पेड़
से तोड़ा हुआ फूल उसे वापस लौटाते हुए फिर क्षमा मांगी, मगर उसने मेरा हाथ
पकड़ लिया और फूलों की ओर संकेत करके फिर कुछ कहा।
अन्ततः मैंने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और लम्बे डग भरते हुए चल पड़ा। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वह वृद्ध जोर से चिल्लाया। संयोग से उधर से एक नवयुवक आ रहा था। उसने अप्रत्याशित रूप से मेरा हाथ मजबूती से पकड़ लिया और मुझे वृद्ध के पास ले आया। उस युवक का शारीरिक बल आंक कर मैं बिना विरोध किए उसके साथ चल पड़ा। उस युवक ने वृद्ध के पास पहुंच कर उससे तेलगु भाषा में कुछ बात की और फिर मुझसे हिंदी में पूछा - '' ये फूल किसके हैं ''
मैं समझ गया कि अब यह युवक मुझे दण्डित करेगा। अतः मैंने भोलेपन का नाटक करते हुए कहा - '' इन दादाजी के।''
अन्ततः मैंने झटके से अपना हाथ छुड़ाया और लम्बे डग भरते हुए चल पड़ा। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप वह वृद्ध जोर से चिल्लाया। संयोग से उधर से एक नवयुवक आ रहा था। उसने अप्रत्याशित रूप से मेरा हाथ मजबूती से पकड़ लिया और मुझे वृद्ध के पास ले आया। उस युवक का शारीरिक बल आंक कर मैं बिना विरोध किए उसके साथ चल पड़ा। उस युवक ने वृद्ध के पास पहुंच कर उससे तेलगु भाषा में कुछ बात की और फिर मुझसे हिंदी में पूछा - '' ये फूल किसके हैं ''
मैं समझ गया कि अब यह युवक मुझे दण्डित करेगा। अतः मैंने भोलेपन का नाटक करते हुए कहा - '' इन दादाजी के।''
- नहीं नहीं, ये फूल किसने बनाते।
- भगवान जी ने।
- भगवान जी ने।
- आपने क्यों तोड़े।''
- ग़लती हो गई। मैंने संभावित अप्रिय घटना से बचने हेतु विनम्रता से उत्तर दिया।
इस पर उस युवक ने हंसते हुए कहा - '' ये फूल आप भगवान को अर्पित करेंगे।''
यह सुनकर मैंने कहा - '' हां।''
- तो इसमें गलत क्या है। भगवान के फूल हैं और उन्हें ही आप अर्पित करेंगे। तो रुक क्यों गए और तोड़ लीजिए। तमाम फूल लगे हैं। ... यह दादाजी आपसे कह रहे थे मगर आप भाग खड़े हुए। इतना कह कर वह युवक जोर से हंसा और एक ओर को चल दिया।
उस वृद्ध ने कुछ फूल अपने हाथ से तोड़ कर मुझे दिए और तेलगु भाषा में कुछ कहा। शायद उसने कहा हो कि कल फिर भगवान की पूजा के लिए फूल ले जाना।
मैं उस वृद्ध की सहृदयता के आगे नतमस्तक हो गया और उसे प्रणाम कर आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मेरे घर के लान में एक गुड़हल का पेड़ लगा है जिसमें से अक्सर कोई फूल तोड़ लेता था। मुझे इस तरह से फूल का थोड़ा जाना बहुत खराब लगता था। एक दिन मैंने फूल तोड़ने वाले को पकड़ने का निश्चय किया और छिप कर बैठ गया। एक महिला फूल तोड़ने आई तो मैं प्रकट हो गया और उस महिला को बहुत भला - बुरा कहा। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उस महिला ने अपने आंचल में रखे सारे फूल वहीं गिरा दिए और दुखी मन से चली गई। उस घटना को याद कर मुझे बहुत अफसोस हुआ और मेरा मन उस महिला से क्षमा मांगने हेतु आकुल हो गया।
मैं नित्य प्रातः भ्रमण पर जाता और सुंदर सुंदर फूल लेकर वापस लौटता। कभी कभी वह वृद्ध मुझे मिल जाते तो मैं उन्हें श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करता। कालोनी के गेट पर आकर देखता कि तमाम बच्चे अपने अपने अभिभावक के साथ खड़े स्कूल बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बस के आते ही कुछ बच्चे उस बस में बैठ जाते और शेष बच्चे अपनी बस के आने की प्रतीक्षा करते। कुछ बच्चे विलम्ब से आते मगर उनके पिता पहले ही आकर खड़े हो जाते और बस ड्राइवर से एक दो मिनट रुकने का आग्रह करते ताकि उनका बच्चा आ जाए।
एक बच्चा, जिसकी आयु सात - आठ वर्ष होगी, वह हमेशा अपने पिता या माता की
गोद में चढ़ कर ही कालोनी के गेट तक आता था। जब पिता थक जाते, तो बच्चे की
माता उसे गोद में ले लेती। एक दिन मैंने गेट पर तैनात सुरक्षा कर्मी से
पूछा - यह बच्चा चलने में असमर्थ हैं क्या।इस पर उस युवक ने हंसते हुए कहा - '' ये फूल आप भगवान को अर्पित करेंगे।''
यह सुनकर मैंने कहा - '' हां।''
- तो इसमें गलत क्या है। भगवान के फूल हैं और उन्हें ही आप अर्पित करेंगे। तो रुक क्यों गए और तोड़ लीजिए। तमाम फूल लगे हैं। ... यह दादाजी आपसे कह रहे थे मगर आप भाग खड़े हुए। इतना कह कर वह युवक जोर से हंसा और एक ओर को चल दिया।
उस वृद्ध ने कुछ फूल अपने हाथ से तोड़ कर मुझे दिए और तेलगु भाषा में कुछ कहा। शायद उसने कहा हो कि कल फिर भगवान की पूजा के लिए फूल ले जाना।
मैं उस वृद्ध की सहृदयता के आगे नतमस्तक हो गया और उसे प्रणाम कर आगे बढ़ गया। मुझे याद आया कि मेरे घर के लान में एक गुड़हल का पेड़ लगा है जिसमें से अक्सर कोई फूल तोड़ लेता था। मुझे इस तरह से फूल का थोड़ा जाना बहुत खराब लगता था। एक दिन मैंने फूल तोड़ने वाले को पकड़ने का निश्चय किया और छिप कर बैठ गया। एक महिला फूल तोड़ने आई तो मैं प्रकट हो गया और उस महिला को बहुत भला - बुरा कहा। इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप उस महिला ने अपने आंचल में रखे सारे फूल वहीं गिरा दिए और दुखी मन से चली गई। उस घटना को याद कर मुझे बहुत अफसोस हुआ और मेरा मन उस महिला से क्षमा मांगने हेतु आकुल हो गया।
मैं नित्य प्रातः भ्रमण पर जाता और सुंदर सुंदर फूल लेकर वापस लौटता। कभी कभी वह वृद्ध मुझे मिल जाते तो मैं उन्हें श्रद्धा पूर्वक प्रणाम करता। कालोनी के गेट पर आकर देखता कि तमाम बच्चे अपने अपने अभिभावक के साथ खड़े स्कूल बस की प्रतीक्षा कर रहे हैं। बस के आते ही कुछ बच्चे उस बस में बैठ जाते और शेष बच्चे अपनी बस के आने की प्रतीक्षा करते। कुछ बच्चे विलम्ब से आते मगर उनके पिता पहले ही आकर खड़े हो जाते और बस ड्राइवर से एक दो मिनट रुकने का आग्रह करते ताकि उनका बच्चा आ जाए।
वह सुरक्षाकर्मी बिहार प्रदेश के छपरा जिले का रहने वाला था। उसने हंस कर
बताया कि यह अपने माता पिता का बहुत दुलारा है। इन्हें वृद्धावस्था में
संतान सुख की प्राप्ति हुई है। इसीलिए दोनों बच्चे के पीछे पागल रहते हैं।
उस सुरक्षा कर्मी ने मुझे यह भी बताया था कि यह भी बिहार के समस्तीपुर के
रहने वाले हैं। इनका नाम श्री कृष्ण झा है। झा साहब ने इस कालोनी के डी
ब्लॉक में 101नं.का फ्लैट खरीद लिया है।
यह सुनकर मेरी रुचि झा साहब में बढ़ गई। अतः उनसे सामना होने पर मैं उन्हें नमस्कार करने लगा। धीरे - धीरे हम दोनों के बीच बातचीत होने लगी। वैसे भी हिंदी भाषियों में थोड़ा अपनत्व का भाव उत्पन्न हो ही जाता था। उनसे बातचीत में मुझे ज्ञात हुआ कि झा साहब किसी इन्टर कालेज में हिंदी के अध्यापक हैं। उनके इकलौते पुत्र का नाम श्री पति है। उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति बहुत विलम्ब से हुई। इसके लिए उन्होंने अनेक मनौतियां मानी, कई डाक्टरों का लम्बा इलाज चला तब उन्हें अपना कुल दीपक प्राप्त हो सका।
झा साहब और उनकी पत्नी अपने पुत्र की हर इच्छा को पूर्ण करने हेतु सदैव तत्पर रहते थे। उन्होंने समस्तीपुर में अपनी पैतृक संपत्ति बेच कर सुविधा एन्क्लेव में एक फ्लैट अपने पुत्र के नाम में खरीद लिया था। उनका विचार था कि समस्तीपुर की तुलना में हैदराबाद का मौसम स्वास्थ्य के बहुत अनुकूल है तथा पढ़ाई का स्तर भी बहुत अच्छा है। हैदराबाद में नौकरियों की संभावना भी समस्तीपुर की अपेक्षा अधिक ही रहेगी। और इस प्रकार अपने पुत्र के सुखद भविष्य के लिए उन्होंने अपने पैतृक जनपद तक से संबंध विच्छेद कर लिया था।
उस कालोनी में अधिकांश परिवार किरायेदार थे, अतः वे आस पास के लोगों से अधिक संपर्क नहीं रखते थे। कुछ लोग फ्लैट खरीदकर खुद उनमें रहे थे। ऐसे लोग आपस में थोड़ा मेल जोल बना कर रखते थे। सुबह शाम वृद्ध लोग और महिलाएं कालोनी में टहलते थे। शाम को अनेक लोग अपने बच्चों को पार्क में शारीरिक अभ्यास कराते और कालोनी के अन्दर सड़क पर साइकिल चलवाते, फुटबाल, बैडमिंटन, क्रिकेट आदि खिलाते। रविवार के दिन लोग छ : मंजिला कालोनी की छत पर जाकर आधा घंटा धूप में बैठते। मुझे यह फ्लैट संस्कृति कुछ अजीब लगती।
मैं सोचता कि हमारा बचपन जहां बीता वहां तो बच्चों के माता पिता उनकी ऐसी चिंता नहीं करते थे। हम सब तो उन्मुक्त होकर पूरे गांव में धमाचौकड़ी मचाते थे। जब दो.ढाई घंटे घर से बाहर रहते तो अम्मा चिंता करती थीं। और अधिक समय तक गायब रहने पर पिता से शिकायत हो जाती थी जिसके परिणामस्वरूप थोड़ी ठुकाई भी झेलनी पड़ती थी। यहां तो मामला एकदम उलटा ही है।
लम्बी यात्रा पूर्ण कर जब मैं अपने बच्चों के साथ सुविधा एन्क्लेव पहुंचा तो सारा कुछ पहले जैसा ही मिला। बस कोई पुराना चेहरा नहीं दिखाई दिया। वैसे ही स्कूल टाइम पर गेट पर स्कूल बसों का आना, बच्चों का मां - बाप के साथ अपनी बस की प्रतीक्षा, शाम को अपने अभिभावकों की देखरेख में बच्चों का खेल.कूद, रविवार को पुरुषों द्वारा आधा घंटा छत पर धूप का सेवन ....।
यह सुनकर मेरी रुचि झा साहब में बढ़ गई। अतः उनसे सामना होने पर मैं उन्हें नमस्कार करने लगा। धीरे - धीरे हम दोनों के बीच बातचीत होने लगी। वैसे भी हिंदी भाषियों में थोड़ा अपनत्व का भाव उत्पन्न हो ही जाता था। उनसे बातचीत में मुझे ज्ञात हुआ कि झा साहब किसी इन्टर कालेज में हिंदी के अध्यापक हैं। उनके इकलौते पुत्र का नाम श्री पति है। उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति बहुत विलम्ब से हुई। इसके लिए उन्होंने अनेक मनौतियां मानी, कई डाक्टरों का लम्बा इलाज चला तब उन्हें अपना कुल दीपक प्राप्त हो सका।
झा साहब और उनकी पत्नी अपने पुत्र की हर इच्छा को पूर्ण करने हेतु सदैव तत्पर रहते थे। उन्होंने समस्तीपुर में अपनी पैतृक संपत्ति बेच कर सुविधा एन्क्लेव में एक फ्लैट अपने पुत्र के नाम में खरीद लिया था। उनका विचार था कि समस्तीपुर की तुलना में हैदराबाद का मौसम स्वास्थ्य के बहुत अनुकूल है तथा पढ़ाई का स्तर भी बहुत अच्छा है। हैदराबाद में नौकरियों की संभावना भी समस्तीपुर की अपेक्षा अधिक ही रहेगी। और इस प्रकार अपने पुत्र के सुखद भविष्य के लिए उन्होंने अपने पैतृक जनपद तक से संबंध विच्छेद कर लिया था।
उस कालोनी में अधिकांश परिवार किरायेदार थे, अतः वे आस पास के लोगों से अधिक संपर्क नहीं रखते थे। कुछ लोग फ्लैट खरीदकर खुद उनमें रहे थे। ऐसे लोग आपस में थोड़ा मेल जोल बना कर रखते थे। सुबह शाम वृद्ध लोग और महिलाएं कालोनी में टहलते थे। शाम को अनेक लोग अपने बच्चों को पार्क में शारीरिक अभ्यास कराते और कालोनी के अन्दर सड़क पर साइकिल चलवाते, फुटबाल, बैडमिंटन, क्रिकेट आदि खिलाते। रविवार के दिन लोग छ : मंजिला कालोनी की छत पर जाकर आधा घंटा धूप में बैठते। मुझे यह फ्लैट संस्कृति कुछ अजीब लगती।
मैं सोचता कि हमारा बचपन जहां बीता वहां तो बच्चों के माता पिता उनकी ऐसी चिंता नहीं करते थे। हम सब तो उन्मुक्त होकर पूरे गांव में धमाचौकड़ी मचाते थे। जब दो.ढाई घंटे घर से बाहर रहते तो अम्मा चिंता करती थीं। और अधिक समय तक गायब रहने पर पिता से शिकायत हो जाती थी जिसके परिणामस्वरूप थोड़ी ठुकाई भी झेलनी पड़ती थी। यहां तो मामला एकदम उलटा ही है।
लम्बी यात्रा पूर्ण कर जब मैं अपने बच्चों के साथ सुविधा एन्क्लेव पहुंचा तो सारा कुछ पहले जैसा ही मिला। बस कोई पुराना चेहरा नहीं दिखाई दिया। वैसे ही स्कूल टाइम पर गेट पर स्कूल बसों का आना, बच्चों का मां - बाप के साथ अपनी बस की प्रतीक्षा, शाम को अपने अभिभावकों की देखरेख में बच्चों का खेल.कूद, रविवार को पुरुषों द्वारा आधा घंटा छत पर धूप का सेवन ....।
इस बीच झा साहब और उनकी पत्नी से भेंट नहीं हुई तो एक दिन मैंने अपने
पुत्र से उनके संबंध में पूछा। उसने बताया कि उनका पुत्र और पुत्रवधू उस
मकान में रहते हैं। उन लोगों को मैंने भी काफी समय से नहीं देखा।
एक
दिन जा साहब और उनकी पत्नी की कुशल क्षेम जानने के लिए मैं फ्लैट सं. डी
101 में पहुंच गया। द्वार पर लगी घंटी बजाने के कुछ देर बाद एक युवक ने आकर
द्वार खोला और मुझसे प्रश्न किया - '' कहिए''
- तुम श्री पति झा ...।
- जी हां! मगर मैंने आपको पहचाना नहीं।''
- मैं शंभूनाथ हूं, रमेशचन्द्र का पिता। जब तुम आठ - नौ वर्ष के थे तब मैं यहां आया था। उन दिनों मेरी और तुम्हारे पापा की खूब बातें होती थीं। मेरे यह कहने पर वह मुझे पहचान तो नहीं पाया किंतु मुझे घर के अन्दर आने के लिए आमंत्रित करने को विवश अवश्य हो गया। मैंने श्रीपति से उसके माता - पिता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसने झिझकते हुए कहा - अंकल ! वे लोग दूसरी जगह रहते हैं।''
- मैं शंभूनाथ हूं, रमेशचन्द्र का पिता। जब तुम आठ - नौ वर्ष के थे तब मैं यहां आया था। उन दिनों मेरी और तुम्हारे पापा की खूब बातें होती थीं। मेरे यह कहने पर वह मुझे पहचान तो नहीं पाया किंतु मुझे घर के अन्दर आने के लिए आमंत्रित करने को विवश अवश्य हो गया। मैंने श्रीपति से उसके माता - पिता से मिलने की इच्छा व्यक्त की तो उसने झिझकते हुए कहा - अंकल ! वे लोग दूसरी जगह रहते हैं।''
- अच्छा, तुम्हारे साथ नहीं रहते । मैंने आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहा।
- वास्तव में, हम दोनों नौकरी में हैं। इसलिए यहां उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो पाती थी। यहां कोई बातचीत करने वाला भी नहीं था, दिन भर मुंह बंद किए बैठे रहते थे। इसलिए हमने एक '' सेवा घर '' में उनके रहने की व्यवस्था कर दी है। हर माह हम लोग सेवा घर को चंदे के रूप में काफी धन दे आते हैं ताकि सेवा घर की प्रबंध समिति के लोग हमारे माता पिता का पूरा ख्याल रखें। श्री पति ने सफाई देने का प्रयास किया।
तभी उसकी पत्नी रसोई से निकल कर हमारे सामने आ गई और बोली - वहां खाने पीने की व्यवस्था एकदम घर जैसी है। उनसे बातचीत करने के लिए आस पास बहुत से हम उम्र लोग हमेशा ही बने रहते हैं।''
- वास्तव में, हम दोनों नौकरी में हैं। इसलिए यहां उनकी ठीक से देखभाल नहीं हो पाती थी। यहां कोई बातचीत करने वाला भी नहीं था, दिन भर मुंह बंद किए बैठे रहते थे। इसलिए हमने एक '' सेवा घर '' में उनके रहने की व्यवस्था कर दी है। हर माह हम लोग सेवा घर को चंदे के रूप में काफी धन दे आते हैं ताकि सेवा घर की प्रबंध समिति के लोग हमारे माता पिता का पूरा ख्याल रखें। श्री पति ने सफाई देने का प्रयास किया।
तभी उसकी पत्नी रसोई से निकल कर हमारे सामने आ गई और बोली - वहां खाने पीने की व्यवस्था एकदम घर जैसी है। उनसे बातचीत करने के लिए आस पास बहुत से हम उम्र लोग हमेशा ही बने रहते हैं।''
उन दोनों की बात सुनकर मुझे बहुत क्रोध आया। अपने क्रोध पर नियंत्रण करते
हुए मैंने कहा - उन्हें घर की चाहत होती तो उन्होंने यह फ्लैट तुम्हारे
नाम में न खरीद कर अपने नाम में खरीदा होता। और उन्हें यदि बोलने .बात करने
वाले लोगों की आवश्यकता होती तो वे सेवा निवृत्त होने के बाद समस्तीपुर
में अपने गांव चले जाते। फिर भी तुम लोगों ने सेवा घर में उन्हें भेज कर
इसकी व्यवस्था कर के उनके ऊपर बहुत उपकार किया है।''
मेरे मन में आया कि मैं इन निकृष्ट कोटि के स्वार्थी लोगों से यह भी कह
दूं कि भगवान तुम लोगों को भी ऐसी ही औलाद दे, मगर मैं यह अशुभ वाक्य बोल
नहीं सकता और चुपचाप उनके घर से उठ कर चला आया।
घर आकर मैं काफी देर तक इस विषय पर विचार करता रहा कि आखिर रक्त - संबंधों के बीच भी इतनी स्वार्थ परता कैसे बढ़ गई है। तभी मन में यह विचार कौंधा कि हमने अपनी स्वार्थ परता के कारण स्वयं को समाज से काट लिया है। अतः अब हमारे ऊपर कोई सामाजिक बंधन नहीं रह गया है। पहले संतान द्वारा वृद्ध माता पिता की उपेक्षा होते देख जाति.बिरादरी और पास.पड़ोस के लोग टोक दिया करते थे। फिर भी यदि संतान के व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता था तो उसका सामाजिक वहिष्कार कर दिया जाता था। आज हम सब स्वयं ही समाज से स्वयं को वहिष्कृत कर लेते हैं या यों कहें कि हम समाज को ही वहिष्कृत कर देते हैं, जिसका परिणाम वृद्धाश्रम के रूप में हमारे सामने आ रहा है।
घर आकर मैं काफी देर तक इस विषय पर विचार करता रहा कि आखिर रक्त - संबंधों के बीच भी इतनी स्वार्थ परता कैसे बढ़ गई है। तभी मन में यह विचार कौंधा कि हमने अपनी स्वार्थ परता के कारण स्वयं को समाज से काट लिया है। अतः अब हमारे ऊपर कोई सामाजिक बंधन नहीं रह गया है। पहले संतान द्वारा वृद्ध माता पिता की उपेक्षा होते देख जाति.बिरादरी और पास.पड़ोस के लोग टोक दिया करते थे। फिर भी यदि संतान के व्यवहार में परिवर्तन नहीं होता था तो उसका सामाजिक वहिष्कार कर दिया जाता था। आज हम सब स्वयं ही समाज से स्वयं को वहिष्कृत कर लेते हैं या यों कहें कि हम समाज को ही वहिष्कृत कर देते हैं, जिसका परिणाम वृद्धाश्रम के रूप में हमारे सामने आ रहा है।
मैं झा साहब से मिलना चाहता था मगर उनके दुख के अनुमान से ही मैं इतना
भयभीत था कि उनसे मिलने की शक्ति मैं अपने भीतर नहीं जुटा सका।
सेवा निवृत्त अधिकारी,
भारतीय स्टेट बैंक,
भारतीय स्टेट बैंक,
संपर्क - 569/108 /2, स्नेह नगर,
आलमबागए लखनऊ - 226005
मो: 9956846197
आलमबागए लखनऊ - 226005
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परिचय
: जन्म .01.05.1952, शिक्षा - एम.ए., पीएचडी, गद्य - पद्य की तेईस
पुस्तकें प्रकाशित। दो कृतिया उ.प्र. हिंदी संस्थान और तीन कृतियां अन्य
साहित्यिक संस्थाओं द्वारा पुरस्कृत। विगत चार दशकों में शताधिक पत्र -
पत्रिकाओं में पांच सौ से अधिक रचनाएं प्रकाशित। उ.प्र हिंदी संस्थान
द्वारा साहित्य भूषण सम्मान, वर्तमान में छंद बद्ध कविता की त्रैमासिक
पत्रिका '' चेतना स्रोत '' का अवैतनिक संपादन।
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